नज़रिया

कृषि कानूनों की वापसी पर शोक मनाने वालों ना तो खेत समझते हैं ना खेती- आकार पटेल

कृषि कानूनों की वापसी पर दो तरह के लोगों ने प्रतिक्रिया जताई है। एक तो किसान हैं, जो करीब एक साल से आंदोलन कर रहे हैं, इनमें अधिकतर पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश के हैं। इन लोगों ने कानूनों की वापसी का जश्न मनाया, क्योंकि संघर्ष कामयाब हुआ और उनके नागरिक अधिकारों की जीत हुई।

दूसरे वे लोग हैं जो इस फैसले से नाराज हैं। ये मध्य वर्ग और मीडिया के वे लोग हैं जो किसान नहीं हैं। ये लोग प्रधानमंत्री के समर्थक हैं और उनके लिए यह फैसला स्वीकार्य नहीं है क्योंकि यह एक तरह से यू-टर्न लेना है।

दूसरे किस्म के लोग ही हैं जिनका खेती-किसानी से कुछ लेना-देना नहीं हैं और कृषि कानून उन्हें सीधे प्रभावित नहीं करते। वे और उन जैसे अन्य लोग इन कानूनों को सुधार का नाम दे रहे थे, बिना इस शब्द का सही अर्थ समझे। यह शब्द काफी पॉजिटिव लगता है और आम धारणा है कि जब हम इस शब्द का इस्तेमाल करते हैं तो हम कोई अच्छी बात ही कर रहे हैं। यह शब्द उस आधुनिक शब्द ‘डिसरप्शन’ जैसा है और इसे भी आधुनिक भाषा में अच्छा ही माना जाता है।

शब्दकोश देखें तो सुधार या रिफ़ॉर्म का अर्थ होता है ‘एक ऐसा बदलाव जो किसी क्षेत्र में अच्छा परिवर्तन करे।’ लेकिन किसानों के मामले में कृषि कानून किसानों पर विपरीत प्रभाव डालने वाले थे। आंदोलनकारी किसानों के मुताबिक उपज या फसल की सरकारी खरीद और उनकी कृषि मंडियों पर गहरा प्रभाव पड़ने वाला था। तो क्या किसान सही थे या फिर उनकी सोचना गलत था? क्या यह एक अच्छा सुधार था या बुरा? आखिर वे लोग जो कभी कृषि मंडी नहीं गए या कभी किसी आढ़तिये से नहीं मिले या जिन्हें ज्वार और बाजरा में फर्क न पता हो, वे कैसे इन कानूनों को अच्छा कह सकते हैं? फिर भी ऐसे तमाम गैर-किसान लोग थे जो इन कानूनों को सुधार का नाम देकर इनका समर्थन कर रहे थे।

यहां तक कि जो सीधे इस विषय से नहीं जुड़े थे, वे भी जानते थे कि सुधार दूसरी चीज़ों को भी प्रभावित करता ही है। भारत में खासतौर से बीते 8 साल के दौरान कई सुधार, कई कड़े फैसले बिना किसी तैयारी के ले लिए गए। 8 नवंबर 2016 को अचानक कैबिनेट बुलाई गई कि किसी बेहद अहम मुद्दे पर चर्चा होनी है। लेकिन इस बैठक में आने से पहले सभी मंत्रियों को उनके मोबाइल फोन बाहर ही छोड़ने को कहा गया। इस बैठक के तुरंत बाद प्रधानमंत्री ने देश के नाम संबोधन में ऐलान कर दिया कि आधी रात के बाद 1000 और 500 के नोट रद्दी हो जाएंगे।

चूंकि कैबिनेट मंत्रियों को नहीं पता था कि ऐसा कोई फैसला होने वाला है, उनके मंत्रालयों को भी इसकी हवा नहीं थी। उनके विभागों को इस फैसले के प्रभावों, या कहें कि दुष्प्रभावों की तैयारियों, इससे जुड़े जोखिम और समस्याओं और उनके संभावित हल पर विचार करने का मौका ही नहीं मिला। ये सबकुछ फैसले की घोषणा बाद तब करना पड़ा जब चलन में जारी मुद्रा बेकार हो चुकी थी। हम सबको मालूम है कि उसके बाद देश ने क्या-क्या झेला।

पिछले साल 24 मार्च की रात में भारतीयों को बताया गया कि अगले तीन सप्ताह तक उन्हें घरों में बंद रहना है या एक तरह से नजरबंद किया जा रहा है। बहुत से लोग बिना भोजन, बिना पैसे और बिना काम के घरों में बंद हो गए। इस साल मार्च में बीबीसी ने 240 आरटीआई अर्जियां सरकार के पास दायर कर कई जानकारियां मांगी। इन अर्जियों के जरिए यह जानने की कोशिश की गई कि देशव्यापी लॉकडाउन का ऐलान करने से पहले किन मंत्रालयों से सलाह-मशविरा किया गया। उन्हें इससे जवाब मिला कि इस फैसले को लेने और उसे लागू करने से पहले किसी भी मंत्रालय या किसी विशेषज्ञ से इस बारे में कोई राय नहीं ली गई। एक बार फिर हमने देखा कि इस फैसले का क्या असर हुआ।

श्रीलंका में लॉकडाउन के ऐलान से कई दिन पहले सरकार ने सभी निर्माण स्थलों या कंस्ट्रक्शन साइट्स को अपना काम समेटने को कहा, नेबरहुड नीति अपनाते हुए लोगों को भोजन पहुंचाने की व्यवस्था की और इसके बाद लॉकडाउन लगाने का ऐलान किया। लेकिन भारत में ऐसा कुछ नहीं हुआ। सिर्फ उंगलियां हिलाकर बता दिया गया कि आज रात 12 बजे के बाद आप घर से नही निकल सकते।

जैसा कि सबकुछ पहले जैसा चल रहा हो और उसे जानबूझकर अचानक बदल दिया जाए, तो उसे डिसरप्शन कहते हैं। शब्दकोश में इसके अर्थ बताते हैं, “किसी चीज़, कार्य या प्रक्रिया को रोकना, खासतौर से किसी आयोजन, प्रक्रिया या सिस्टम को पहले जैसी गति से चलने से रोक देना।” जहां मीडिया और मध्य वर्ग ने इसे पॉजिटिव बताया, लेकिन ध्यान इस बात पर देना चाहिए कि इससे किन लोगों के जीवन पर प्रभाव पड़ा और उनके लिए डिसरप्शन का क्या अर्थ है।

सस्ते अनाज को हासिल करने के लिए आधार की अनिवार्यता का अर्थ है कि बहुत से गरीबों को उनका हक नहीं मिल सकता क्योंकि या तो कनेक्टिविटी बहुत खराब है या फिर मजदूरी करने के कारण उनके फिंगर प्रिंट मैच नहीं हो पाते। लेकिन मीडिया ने यह दिखाया कि आधार के जरिए राशन देने का अर्थ है कि सिर्फ पात्र लोगों तक ही राशन पहुंचे, और मीडिया ने इसे मास्टर स्ट्रोक की संज्ञा दे दी। वैसे बता दें कि पिछली यूपीए सरकार और मौजूदा एनडीए सरकार दोनों ने ही इसे अनिवार्य किया है। लेकिन जो लोग इस प्रक्रिया से दोचार होते हैं, उनके लिए लिए ज्यादा समस्या है और उन्हें इसका नुकसान उठाना पड़ता है।

मेरे जैसे लोगों पर नोटबंदी का ज्यादा असर नहीं हुआ क्योंकि मेरे जैसे लोग ऑनलाइन और क्रेडिट जैसे माध्यमों का इस्तेमाल पहले से करते रहे थे। यहां तक कि यह कोई डिसरप्शन भी नहीं था। लेकिन इस फैसले ने अर्थव्यवस्था के उस चक्र पर पूर्ण विराम लगा दिया जो सिर्फ नकद में लेनदेन पर ही चलता था।

हम दरअसल जिन फैसलों को बोल्ड, मजबूत और कड़े फैसले बताते हैं, दरअसल दूसरों के लिए वे बहुत ही क्रूर, दुखदायी और अवांछनीय होते हैं।

कृषि कानूनों के साथ भी जो कुछ हुआ, हमें उन्हें भी इसी चश्मे से देखना चाहिए, क्योंकि इन कानूनों से जिनका जीवन प्रभावित होने वाला था, वे इसे अच्छी तरह समझते थे और वे और उनके परिवार इनके खिलाफ बीते एक साल से मजबूती के साथ डटे रहे और साफ कह दिया कि ये मंजूर नहीं हैं।

द फ्रीडम स्टॉफ
पत्रकारिता के इस स्वरूप को लेकर हमारी सोच के रास्ते में सिर्फ जरूरी संसाधनों की अनुपलब्धता ही बाधा है। हमारी पाठकों से बस इतनी गुजारिश है कि हमें पढ़ें, शेयर करें, इसके अलावा इसे और बेहतर करने के सुझाव दें।
https://thefreedomsnews.com

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *