कर्नाटक के मुख्यमंत्री बीएस येदियुरप्पा ने सोमवार को मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया। इसे राज्यपाल ने मंजूर कर लिया है। पर राज्य के सबसे बड़े लिंगायत नेता येदियुरप्पा को कार्यकाल पूरा न करने देना, मठों को पसंद नहीं आ रहा है। लिंगायत मठ खुलकर भाजपा के विरोध में खड़े हो गए हैं। मठों का कहना है कि येदियुरप्पा भले ही 78 वर्ष के हो गए हो, उन्हें कार्यकाल पूरा करने दिया जाना चाहिए था।
कर्नाटक के राजनीतिक घटनाक्रम को लेकर बेंगलुरू से लेकर दिल्ली तक गतिविधियां तेज हो गई हैं। येदियुरप्पा का उत्तराधिकारी कौन बनेगा, इस पर भी अब तक केंद्रीय नेतृत्व का कोई बयान नहीं आया है। पर पिछले 30 साल से भाजपा, खासकर येदियुरप्पा का समर्थन कर रहे लिंगायत समुदाय की नाराजगी खुलकर सामने आ गई है।
यह नाराजगी पार्टी और दक्षिण भारत के अन्य राज्यों (केरल, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना) में कमल खिलाने की कोशिश को कैसे प्रभावित करेगी? लिंगायत समुदाय की नाराजगी का खामियाजा आज भी कांग्रेस भुगत रही है, ऐसा क्यों? आइए जानते हैं…
भाजपा के लिए लिंगायत मठों को नजरअंदाज कर पाना मुश्किल क्यों है?
लिंगायत कर्नाटक की सबसे बड़ी सिंगल कम्युनिटी है, जिसकी आबादी 17% है। प्रमुख रूप से उत्तरी कर्नाटक में लिंगायतों की बहुलता है।
लिंगायत कम्युनिटी की राजनीति उनके मठों से चलती है, जो भाजपा, खासकर येदियुरप्पा का समर्थन करते रहे हैं।
राज्य की 224 सीटों वाली विधानसभा में हिंदू शैव समुदाय- लिंगायत का दबदबा 90 से 100 सीटों पर है। यानी करीब 40%-45% सीटों पर लिंगायत निर्णायक हैं।
राज्य में करीब 500 बड़े और 1000 से अधिक छोटे मठ हैं। इनमें सबसे अधिक मठ लिंगायतों के हैं और जब वोटिंग की बात आती है तो यहां के लोग मठों का फरमान मानते हैं। इसी वजह से हर चुनाव में हर बड़ी पार्टी के नेता इन मठों के जरिए अपनी ताकत बढ़ाते रहे हैं।
लिंगायत संगठन ऑल इंडिया वीरशैव महासभा की 22 जिलों में उपस्थिति है और यह संगठन अब तक येदियुरप्पा के साथ खड़ा दिखाई दिया है।
राज्य में दूसरी सबसे बड़ी ताकतवर कम्युनिटी है- वोकालिग्गा। पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवगौड़ा वोकालिग्गा हैं और उनके बेटे एचडी कुमारस्वामी इसी कम्युनिटी के समर्थन से राज्य में मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठ चुके हैं।
लिंगायत समुदाय कांग्रेस से क्यों नाराज है?
यह नाराजगी एकाएक नहीं आई है। 1989 में राज्य में कांग्रेस की सरकार थी। उस समय लिंगायत नेता वीरेंद्र पाटिल ने 224 सीटों की विधानसभा में 179 सीटों के साथ बहुमत हासिल किया था। जब 1990 में राम मंदिर आंदोलन अपने चरम पर था, स्ट्रोक आने की वजह से पाटिल बीमार थे। तब कांग्रेस अध्यक्ष राजीव गांधी ने बेंगुलरु एयरपोर्ट पर विमान पर चढ़ने से पहले ही पाटिल को मुख्यमंत्री पद से हटाने की घोषणा कर दी थी।
अपनी कम्युनिटी के बीमार नेता को इस तरह हटाना लिंगायतों को पसंद नहीं आया। पाटिल ने भी कांग्रेस नेतृत्व के खिलाफ बगावत कर दी थी। स्थिति बिगड़ी तो इतने बड़े बहुमत के बावजूद कांग्रेस को सरकार गंवानी पड़ी।
उस वक्त केंद्र में जनता दल की सरकार थी और उसने राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा दिया था। उसके बाद से लिंगायतों ने कांग्रेस से दूरी बना ली।
1994 के चुनावों में लिंगायतों का साथ भाजपा को मिला, जिससे उसका वोट प्रतिशत 4% (1989) से बढ़कर 17% तक पहुंच गया था। वहीं, कांग्रेस 36 सीटों पर सिमट गई थी। यह राज्य में टर्निंग पॉइंट था और इसके बाद लिंगायतों को पार्टी ने महत्व दिया और इस कम्युनिटी ने भाजपा को सत्ता में लाकर बिठाया।
भाजपा के लिए येदियुरप्पा की क्या अहमियत है?
2004 के विधानसभा चुनावों के बाद कांग्रेस ने सरकार बनाई। पर जनता दल सेकुलर और भाजपा ने गठबंधन कर 2006 में उसे सत्ता से बेदखल कर दिया।
कुमारस्वामी और येदियुरप्पा को बारी-बारी से मुख्यमंत्री बनना था, पर 12 नवंबर 2007 को येदियुरप्पा जब मुख्यमंत्री बने तो कुमारस्वामी ने साथ नहीं दिया। 7 दिन बाद ही उन्हें इस्तीफा देना पड़ा।
लिंगायतों को अपने नेता के साथ वादाखिलाफी पसंद नहीं आई। तब 2008 के चुनावों में भाजपा 110 सीटों के साथ सत्ता में आई। येदियुरप्पा मुख्यमंत्री बने। पर इस बार भ्रष्टाचार के आरोपों की वजह से 4 अगस्त 2011 को उन्हें इस्तीफा देना पड़ा।
2013 में येदियुरप्पा ने कर्नाटक जनता पक्ष (KJP) बनाकर चुनाव लड़ा, जिसे 10% वोट मिले। लिंगायत नेता की गैरमौजूदगी में भाजपा को 14% वोट का नुकसान हुआ और वह 40 सीटों के साथ राज्य में पहले से तीसरे नंबर की पार्टी बन गई।
यानी, पार्टी चुनावों में तभी सफल रही है, जब उसका नेतृत्व येदियुरप्पा ने किया। फिर चाहे बात लोकसभा की हो या विधानसभा की। 2013 में पार्टी के बुरे प्रदर्शन के बाद उस समय प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी ने येदियुरप्पा की घर वापसी कराई। इसका नतीजा था कि 2014 में 28 लोकसभा सीटों में से पार्टी ने 17 पर जीत हासिल की। 2019 में पार्टी ने 28 में से 25 सीटें जीतकर किसी और पार्टी के लिए कुछ छोड़ा ही नहीं।
2018 में सबसे बड़ी पार्टी बनने के बाद भी जनता दल (सेकुलर) और कांग्रेस ने साथ आकर येदियुरप्पा को मुख्यमंत्री की कुर्सी से बेदखल कर दिया। येदियुरप्पा 17 मई 2018 को सीएम बने और 23 मई 2018 को बहुमत नहीं होने की वजह से उन्हें कुर्सी छोड़नी पड़ी।
पर कुमारस्वामी के नेतृत्व वाली सरकार में मतभेद उभरे और 17 विधायक कांग्रेस छोड़कर भाजपा में शामिल हो गए। इसका नतीजा यह हुआ कि 26 जुलाई 2019 को येदियुरप्पा फिर मुख्यमंत्री बने।
येदियुरप्पा 78 वर्ष के हैं, तो उन्हें हटाने पर इतना बवाल क्यों?
कर्नाटक में जो बवाल है, वह लिंगायत मठों ने मचाया है। वे सिर्फ इतना कह रहे हैं कि येदियुरप्पा को अपना कार्यकाल पूरा करने दिया जाए। दरअसल, अब तक चार बार सीएम बनने वाले येदियुरप्पा एक बार भी अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सके हैं।
दरअसल, भाजपा में नियम बन गया है कि 75+ को सक्रिय राजनीति से रिटायर कर दिया जाएगा। येदियुरप्पा 78 के हो चुके हैं, ऐसे में पार्टी चाहती है कि 2023 में विधानसभा चुनावों में नए नेता के नेतृत्व में चुनाव लड़ा जाए। ताकि भविष्य में वह पार्टी को आगे बढ़ाए।
हमने उत्तराखंड में भी देखा कि एंटी-इनकम्बेंसी और चुनावी तैयारियों को देखते हुए भाजपा ने एक साल में तीन नेताओं को मुख्यमंत्री बनाया है। ताकि अगले चुनावों से पहले व्यवस्था दुरुस्त की जाए। बदलाव की मांग तो उत्तरप्रदेश में भी उठी थी, पर योगी आदित्यनाथ को हटाना पार्टी की चुनावी तैयारियों को नुकसान पहुंचा सकता था। इस वजह से उसने यह फैसला टाल दिया।
दक्षिण भारत के पांच राज्यों में से सिर्फ कर्नाटक में भाजपा की सरकार है। पुडुचेरी में भाजपा सत्ता में सहयोगी जरूर है, पर वहां उसका दबदबा नहीं है। ऐसे में पार्टी दक्षिण भारत में जनाधार को बढ़ाने के ‘मिशन कमलम’ को तभी आगे बढ़ा सकती है, जब कर्नाटक में उसके पास येदियुरप्पा जैसा ताकतवर नेता हो। वर्ना, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, केरल और तमिलनाडु में उसके लिए बड़ी ताकत बनने का रास्ता बहुत मुश्किल रहने वाला है।