सामाजिक कार्यकर्ता सुधा भारद्वाज की बेटी मायशा नेहरा ने एक चिट्ठी सार्वजनिक की है, इस चिट्ठी के ज़रिए मायशा अपनी मां को याद कर रही हैं, जिसे मीडिया नक्सली बता रही है उस असाधारण महिला की वास्तविक लाइफ कैसी है। उन्होंने किस हद तक जाकर आदिवासी और गरीब लोगों की सेवा की है कि अपनी बेटी को भी वक़्त नहीं दे पाई।बीबीसी हिंदी ने इसे प्रकाशित किया है।पढ़िए मायशा की अपने मां के नाम लिखी यह चिट्ठी।
सुबह के सात बजे थे। मम्मी ने उठाया सर्च करने आए हैं घर को, उठ जाओ। फिर उसके बाद जो हुआ वो सब जानते हैं। सब मम्मा के बारे में लिख रहे हैं। मैंने सोचा मैं भी लिख दूं (हाहा) मेरी और मम्मा की सोच में हमेशा से थोड़ा फ़र्क रहा है। मेरी सोच शायद मम्मा की तरह मैच नहीं करती। इस बारे में शायद हमारी बहस भी हुई होगी। मैं हमेशा मम्मा को कहती थी कि, ”मम्मा हम ऐसी लाइफ़ क्यों लीड करते हैं बिल्कुल नॉर्मल सी, हम क्यूं अच्छे से नहीं रहते।”
मम्मा कहती थी कि बेटा मुझे ऐसे ही ग़रीबों के बीच में रह कर काम करना अच्छा लगता है। बाक़ी जब तुम बड़ी हो जाओगी तुम अपने हिसाब से रहना। फिर भी मुझे बुरा लगता था। मैं कहती थी कि आप ने बहुत साल दिए हैं सभी लोगों को अब अपने लिए टाइम निकालो और अच्छे से रहो। मेरी नाराज़गी ये भी थी कि मम्मा ने मुझे वक़्त नहीं दिया काम की वजह से। उनका ज़्यादा वक़्त लोगों के लिए होता था मेरे लिए नहीं। बचपन में यूनियन के एक चाचा की फ़ैमिली के साथ रहती थी। उनके बच्चे थे, वो साथ रहते थे। पर मम्मा की याद आती थी तो मैं मम्मा की साड़ी पकड़कर रोती थी। मुझे आज भी याद है मैं बीमार थी और चाची ने मेरे पास आकर मेरे सिर पर हाथ फेरा था।
मैने सोचा मम्मा होगी। अचनाक मैं बोल पड़ी ‘मां’ फिर आंख खोली तो देखा चाची थी। बचपन का कम वक़्त ही मैंने मम्मा के साथ बिताया है। जब मैं छठी क्लास में आयी तब प्रॉपर मम्मा के साथ रहना शुरू किया, शायद इसीलिए हम एक दूसरे को आज भी कम समझ पाते हैं। मैंने उनको देखा है पूरे दिन काम करते हुए, बिना नहाए बिना खुद का ख़्याल रखे, बिना खाए, बिना सोए। दूसरों के लिए लड़ते हुए, दसरों के लिए करते हुए। मुझे बुरा लगता है जब मम्मा अपना ख़्याल नहीं रखती, उनके पास जब केस आता था तो मम्मा काफ़ी अपसेट होती थीं।
उनके लिए मैं सोचती थी कि ये इनका प्रोफ़ेशन है, WHY SHE IS GETTING UPSET ABOUT IT। बोला भी है मैंने उन्हें। वो कहती थी कि हम नहीं सोचेंगे तो कौन सोचेगा। I HAVE HEARD ON NEWS THAT कोई कह रहा था कि ये ऐसे लोग आदिवासियों के लिए काम करते हैं। कहते हैं पर ये दिखावा करते हैं, इनके बच्चे तो USA में जाकर पढ़ते हैं। शायद उनको मेरे बारे में नहीं पता कि मैं एक बस्ती के सरकारी स्कूल में पढ़ी हूं, हिंदी मीडियम में।
और मैं हमेशा मम्मा से लड़ती थी कि खुद इंग्लिश मीडियम में पढ़ी और मुझे हिंदी में पढ़ाया। BUT वो अलग है कि इंग्लिश बोलना और पढ़ना मैंने खुद से सीखा क्योंकि मेरा INTEREST था। हां, 12वीं आकर मैं मम्मा से ज़िद कर के NIOS के इंग्लिश मीडियम से पढ़ाई की क्योंकि मेरा मन था। मम्मा को बोला जा रहा है कि नक्सली है, मुझे बुरा नहीं लगता बस यही सोचती हूं कि लोग पागल हो चुके हैं बिना किसी की असलियत जाने उनको कुछ भी कहने की आदत पड़ गई है लोगों को।
मुझे उनकी बातों से, पुलिस की बातों से फ़र्क नहीं पड़ता क्योंकि मुझसे अच्छा मेरी मां को कौन जानता होगा। अगर आदिवासियों के हक़ के लिए लड़ना, मजदूर-किसानों के लिए लड़ना, दमन और शोषण के ख़िलाफ़ लड़ना और अपनी पूरी ज़िंदगी उनके लिए दे देना, अगर ऐसे लोग नक्सली होते हैं तो I GUESS नक्सली काफी अच्छे हैं। कोई कुछ भी कहे I AM PROUD TO BE HER DAUGHTER। मम्मा मुझे हमेशा कहती हैं, बेटे मैंने पैसे नहीं लोगों को कमाया है AND YES SHE IS RIGHT, I CAN SEE THAT
LOVE YOU MOM
MAAYSHA