सर्वकर्माणि मनसा संन्यस्यास्ते सुखं वशी।
नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन्।।
और हे अर्जुन, वश में है अंतःकरण जिसके, ऐसा सांख्ययोग का आचरण करने वाला पुरुष निःसंदेह न करता हुआ और न करवाता हुआ, नौ द्वारों वाले शरीररूप घर में सब कर्मों को मन से त्यागकर, अर्थात इंद्रियां इंद्रियों के अर्थों में बर्तती हैं, ऐसा मानता हुआ आनंदपूर्वक, सच्चिदानंदघन परमात्मा के स्वरूप में स्थित रहता है।
इसमें एक ही नई बात कही है, वह समझ लें।
कहा है, अंतःकरण वश में हुआ जिसका! इस संबंध में हमने बात की है। न करता है, न कराता हुआ, सच्चिदानंद परमात्मा में सदा स्थित रहता है। यह आखिरी बात इस सूत्र में नई है।
ऐसा व्यक्ति, ऐसे ज्ञान को उपलब्ध, इंद्रियों से अपने को भिन्न जानता है जो, वासनाएं जिसके अंतःकरण को अशुद्ध और कुरूप और दुर्गंधित नहीं करतीं; कर्म करता हुआ भी जानता नहीं, मानता नहीं कि मैं कर्म करता हूं। प्रभु ही करता है। कराता हुआ भी नहीं मानता कि मैं कराता हूं। प्रभु ही कराता है। ऐसा पुरुष प्रतिपल, हर घड़ी, सोते-जागते, उठते-बैठते सच्चिदानंद परमात्मा में ही स्थिर रहता है। एक क्षण को भी वह हटता नहीं वहां से। हटे तो हम भी नहीं हैं, लेकिन हमें इसका पता नहीं है, उसे पता होता है। हटे तो हम भी नहीं हैं। सच्चिदानंद परमात्मा हमारा स्वरूप है।
लेकिन हमारी हालत वैसी है, जैसा मैंने सुना है, एक मछली ने एक दिन जाकर सागर की रानी मछली से पूछा कि यह सागर कहां है? बहुत सुनती हूं चर्चा! मछलियां बड़ी बात करती हैं! पुरखों से सुनी है यह बात कि सागर है कोई। पर कहां है? सागर कहां है?
स्वभावतः, मछली सागर में ही पैदा होती है, सागर में ही जीती है और सागर में ही समाप्त हो जाती है। जो इतना निकट है और सदा निकट है, वह दिखाई नहीं पड़ता। जो बहुत ऑबियस है, जो बिलकुल सदा ही साथ है, वह दिखाई नहीं पड़ता। दिखाई पड़ने के लिए बीच-बीच में खो जाना जरूरी है।
मछली को सागर से निकालो, तब उसे पता चलता है कि सागर कहां है। डाल दो तट पर मछली को निकालकर, तब तड़फन आती है। तब पता चलता है, सागर कहां है। अन्यथा सागर में रही मछली को कभी पता नहीं चलता कि सागर कहां है। पता चलेगा भी कैसे? दूरी चाहिए पता चलने को। पर्सपेक्टिव चाहिए, फासला चाहिए। थोड़ा फासला हो तो पता चलता है, नहीं तो पता नहीं चलता।
तो सागर की मछली को पता न हो, आश्चर्य नहीं है। हमको भी पता नहीं है कि हम परमात्मा में ही जीते, पैदा होते, जन्मते, बड़े होते, बिखरते, विसर्जित होते हैं। और सागर की मछली तो कोशिश करने से कभी किनारे पर भी आ सकती है। हम परमात्मा के किनारे पर कभी नहीं आ सकते, क्योंकि कोई किनारा है ही नहीं। इसीलिए तो हमें पता नहीं चलता कि परमात्मा कहां है।
लोग पूछते हैं, परमात्मा कहां है? अगर परमात्मा कोई चीज होती, तो बताई जा सकती थी, यह रही। एक पत्थर भी बताया जा सकता है, यह रहा; और परमात्मा नहीं बताया जा सकता कि कहां है! क्योंकि परमात्मा कहां है, यह पूछना ही गलत है। परमात्मा का मतलब ही यह होता है कि जो सब जगह है, जो सब कहीं है, एवरीव्हेयर। हर कहीं है जो, उसका नाम परमात्मा है।
इसका यह मतलब भी होता है कि जैसे हम दूसरी चीजों को बता सकते हैं कि यह रही, ऐसे हम परमात्मा को नहीं बता सकते। इसलिए हम यह भी कह सकते हैं कि परमात्मा का मतलब है, वही, जो कहीं भी नहीं है, नोव्हेयर। कहीं नहीं बता सकते कि यह रहा। कहीं भी अंगुली निर्देश नहीं कर सकती कि यह रहा। सब चीजों को बता सकते हैं, यह रही, परमात्मा को नहीं बता सकते। अगर परमात्मा को बताना हो, तो अंगुली के इशारे से नहीं बता सकते; मुट्ठी बंद करके बताना पड़ेगा कि यह रहा। अंगुली से इशारा करेंगे, तो गलती हो जाएगी। क्योंकि फिर अंगुली के अतिरिक्त जो इशारे छूट गए, वहां कौन होगा? वहां भी वही है। भीतर भी वही है, बाहर भी वही है। सब जगह वही है।
परमात्मा का अर्थ है, अस्तित्व, दि एक्झिस्टेंस। हम भी उसी में जीते हैं, लेकिन हमें पता नहीं है। लेकिन जिस व्यक्ति ने अंतःकरण को शुद्ध कर लिया, उसे इसका पता हो जाता है। ठीक ऐसे ही पता हो जाता है, जैसे कि दर्पण पर धूल जमी हो और चेहरा न बनता हो। और किसी ने दर्पण को साफ कर लिया और चेहरा बन जाए। और दर्पण में दिखाई पड़ जाए कि अरे, मैं तो यह रहा! लेकिन जब धूल जमी थी, तब भी दर्पण पूरा दर्पण था। धूल हट गई, तब भी दर्पण वही दर्पण है। लेकिन जब धूल पड़ी थी, तो चेहरा बन नहीं पाता था, प्रतिफलित नहीं होता था; अब प्रतिफलित होता है।
शुद्ध अंतःकरण मिरर लाइक, दर्पण के जैसा हो जाता है। इसलिए कृष्ण ने कहा, जिसका अंतःकरण शुद्ध है! जिसके अंतःकरण से सारी फलाकांक्षा की धूल हट गई, वासनाओं का सब जाल हट गया, कूड़ा-करकट सब फेंक दिया उठाकर, कर्ता का बोझ हटा दिया, सब परमात्मा पर छोड़ दिया। इतना शुद्ध और हलका हुआ अंतःकरण, शांत और मौन, निर्भार हुआ अंतःकरण, जानता है प्रतिपल कि मैं सच्चिदानंद परमात्मा में हूं। होता ही उसी में है सदा। लेकिन अब जानता है। अब ध्यानपूर्वक जानता है। अभी सोया हुआ था, अब जागकर जानता है।
जैसे आप सोए हों। सूरज की रोशनी बरसती है चारों तरफ, आप सोए हैं। आपकी बंद पलकों पर सूरज की रोशनी टपकती है, लेकिन आपको कोई भी पता नहीं, आप सोए हैं, सूरज चारों तरफ बरस रहा है। आपके खून में सूरज की गर्मी जा रही है, आपके भीतर तक। आपका हृदय सूरज की गर्मी में धड़क रहा है। सब तरफ सूरज है, बाहर और भीतर, लेकिन आपको कोई पता नहीं है; आप सोए हैं।
फिर एक आदमी उठ आया और उसने जाना और अब वह पाता है कि हर घड़ी सूरज में है। सोया हुआ भी सूरज में है, जागा हुआ भी सूरज में है। लेकिन सोए हुए को पता नहीं है, कांशसनेस नहीं है।
अंतःकरण जिसका शुद्ध होता है, वह जानता है प्रतिपल, मैं परमात्मा में हूं। और जिसको यह पता चल जाए कि प्रतिपल मैं परमात्मा में हूं, स्वभावतः सच्चिदानंद की तिहरी घटना उसके जीवन में घट जाती है।
गीता – दर्शन
भाग दो,
अध्याय-5
प्रवचन—6