राजकिशोरजी नहीं रहे। हिंदी पत्रकारिता में विचार की जगह आज और छीज गई। कुछ रोज़ पहले ही उन्होंने अपना प्रतिभावान इकलौता बेटा खोया था।
पिछले महीने जब मैं उनसे मिलने गया, वे पत्नी विमलाजी को ढाढ़स बँधा रहे थे। लेकिन लगता था ख़ुद भीतर से कम विचलित न रहे होंगे। मेरे आग्रह पर राजस्थान पत्रिका के लिए वे कुछ सहयोग करने लगे थे। एक मेल में लिखा – “दुख को कब तक अपने ऊपर भारी पड़ने दिया जाये।” फिर जल्द दूसरी मेल: “तबीयत ठीक नहीं रहती। शरीर श्लथ और दिमाग अनुर्वर। फिर भी आप का दिया हुआ काम टाल नहीं सकता। आज हाथ लगा रहा हूँ।”
लेकिन होना कुछ बुरा ही था। फेफड़ों में संक्रमण था। कैलाश अस्पताल होते एम्स ले जाना पड़ा। आइसीयू में देखा तो अचेत थे। कई दिन वैसे ही रहे। तड़के उनकी बहादुर बेटी ने बताया डॉक्टर कह रहे हैं कभी भी कुछ हो सकता है; कुछ घंटे या दो-तीन रोज़ … और दो घंटे बाद वे चले गए। फ़ोन पर मुझसे कुछ कहते नहीं बना। परिवार पर दूसरा वज्रपात हुआ है। ईश्वर उन्हें इसे सहन कराए।
मेरा परिचय उनसे तबका था जब सत्तर के दशक में बीकानेर में शौक़िया पत्रकारिता शुरू की थी। वे कलकत्ता में ‘रविवार’ में थे। तार भेजकर मुझसे लिखवाते थे। फिर जब मैं राजस्थान पत्रिका समूह के साप्ताहिक ‘इतवारी पत्रिका’ का काम देखने लगा, उन्होंने हमारे लिए नियमित रूप से ‘परत-दर-परत’ स्तम्भ लिखा जो बरसों चला।
राजकिशोरजी ही नहीं गए, उनके साथ हमारा काफ़ी कुछ चला गया है।
(ओम थानवी की फ़ेसबुक वॉल से)