हिन्दू धर्म में देवी-देवताओं के साथ ही उनके प्रतीकों और वाहनों की पूजा-अर्चना करने की भी परंपरा है।देवी-देवताओ के ये प्रतीक और वाहन किसी अन्य लोक के नहीं बल्कि प्रकृति का अभिन्न हिस्सा हैं,जिनमें जानवर,पक्षी,सरीसृप,फूल और वृक्ष शामिल हैं। नाग पंचमी भी ऐसा ही एक पर्व है जिसमें सांप या नाग को देवता मानकर उसकी पूजा की जाती है। नाग पंचमी के दिन लोग दिन भर व्रत करते हैं और सांपों को दूध भी पिलाते हैं। नाग पंचमी के व्रत को अत्यंत फलदायी और शुभ माना गया है।
नागों को लेकर हमारे पुराणों में अनेक रोचक और रोमांचक कथाएं हैं। नाग वैदिक संस्कृति का महत्वपूर्ण अंग रहे हैं। पुराणों में ऋषि कश्यप और उनकी पत्नी कद्रू नागों की उत्पति मानी गयी है।ब्रह्मा जी के आशीर्वाद से आस्तिक ऋषि द्वारा सर्पों की रक्षा किये जाने के दिन के रूप में नागपंचमी मनाने का उल्लेख है। सर्प को मानव जाति के हितैषी के रूप में पूजा जाता है। कृषि को नुकसान पहुंचाने वाले चूहों व अन्य कई प्रकार के कीटों से सर्प फसलों की रक्षा करते हैं। शायद इसीलिए शास्त्रों में सर्पों को क्षेत्रपाल भी कहा गया है।
सर्प को देख कर आदमी भय से भले ही सिहर उठता है, लेकिन ऐसा माना जाता है कि सांप अकारण किसी को नहीं काटता। वस्तुत: नागपंचमी मानव मित्र सर्पों का विनाश रुकवाने, शत्रुता खत्म करने और सद्भाव बढ़ाने का पर्व है। कहते हैं सर्प वायु पीता है अर्थात वायुमंडल की संपूर्ण विषाक्तता को स्वयं ग्रहण कर वह मानव व अन्य जीव-जंतुओं के लिए स्वच्छ पर्यावरण प्रदान करता है। श्रीमद् भागवत में एक कथा कालिया नाग की आती है जिसके विष से यमुना का पानी जहरीला हो गया और बृजवासियों के प्राणों पर संकट आ गया। तब श्रीकृष्ण ग्वाल-बालों के साथ गेंद के खेल की लीला रच कर यमुना के अथाह जल में कूद पड़े और कालिया नाग का मर्दन किया। इधर कन्हैया को नदी में कूदते देख ग्वाल-बालों में चिंता की लहर दौड़ गयी और यह खबर गोकुल में आग की तरह फैलने से नंद-यशोदा सहित हजारों बृजवासी रूदन करने लगे। यमुना तट पर रोते-बिलखते इनलोगों ने अचानक देखा कि नदी की बीच धारा में से नाग के फन पर वंशी बजा कर नृत्य करते हुए कन्हैया प्रकट हो रहे हैं तो कृष्ण की जय-जयकार से आकाश गूंज उठा। इस तरह यमुना कालिया के विष वमन से मुक्त हुई। यह कथा जल को शुद्ध बनाये रखने और नदी की स्वच्छता के लिए प्राणों की भी परवाह न करने का संदेश देने वाली है जो आज बेहद जरूरी है।
भगवान भोलेनाथ भी नागराज बासुकी को अपने गले का हार बनाया तो वहीं नागराज शेषनाग को भगवान विष्णु क्षीरसागर में अपनी शैया बनाये हुए हैं।उधर गणेश जी ने नाग को यज्ञोपवीत (जनेऊ) के रूप में धारण किया हुआ है। इससे भारतीय संस्कृति में नागों के महत्व को समझा जा सकता है। सर्प-पूजा को त्योहार के रूप में मनाने की परंपरा प्रकृति और पर्यावरण के संरक्षण का संदेश देने वाली है।
इस तरह हम जीव-जंतुओं की रक्षा का संकल्प भी लेते हैं। दरअसल यह सब आख्यान जो इन कथाओं के माध्यम से व्यक्त होते हैं प्रकृति,मनुष्य और जीव-जंतुओं के सहजीवन के आनंद की अनुभूति कराने वाले हैं। नाग पंचमी जैसे पर्वों के माध्यम से हमारी सनातन वैदिक संस्कृति लगातार यही सिखाने का प्रयास करती रही है कि सहअस्तित्व की भावना से जीवन जीना ही कल्याण का मार्ग है।
लेखक:
राजेंद्र वैश्य, अध्यक्ष, पृथ्वी संरक्षण
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