पर्यावरण संरक्षण की चेतना वैदिक काल से ही प्रचलित है। प्रकृति और मनुष्य सदैव से ही एक दूसरे के पूरक रहे हैं। एक के बिना दूसरे की कल्पना नही की जा सकती है। वैदिक काल के ध्येय वाक्य “सर्वे भवन्तु सुखिनः” की अभिधारणा लिए प्रकृति और मनुष्य एक दूसरे की सहायता करते थे। प्रकृति सदैव मनुष्य को अपने अनुपम उपहारों से पोषित करती रही है। ऐसा नहीं है कि प्रकृति पर अतिक्रमण आधुनिक काल में ही प्रारम्भ हुआ, राम-कृष्ण के समय में भी यह व्याप्त था। उस समय भी प्रकृति के संरक्षण एवं संवर्धन करने के सार्थक प्रयास हुए।
प्रकृति को मान दिलाने के कारण ही भगवान श्रीकृष्ण लोकनायक के रूप में स्थापित हुए। चाहे कालिया नाग के विष के प्रभाव से यमुना को मुक्त कराने का कार्य हो अथवा इंद्र का दम्भ चूर करने के लिए गोप-ग्वालों के द्वारा गोवर्धन पर्वत की पूजा कराना हो, गौपालन एवं संवर्धन जैसे कार्यो को भगवान श्रीकृष्ण ने महत्व प्रदान किया।
कृष्ण प्रकृति के कितने बड़े सचेतक और प्रकृति प्रेमी थे, इसका पता उनके द्वारा उपयोग की जाने वाली प्रिय वस्तुओं के अवलोकन से चलता है। उनकी प्रिय कालिन्दी, गले में वैजयंती माला ,सिर पर मयूर पंख,अधरों पर बांस की बांसुरी, कदम्ब की छाँव और उनकी प्रिय धेनु यह सब इस बात की ओर इंगित करते है कि श्रीकृष्ण पर्यावरण के सच्चे हितैषी और संरक्षक थे। गीता में प्रकृति के साथ अपने अभेद को व्यक्त करते हुए वह कहते है- “अश्वथ सर्ववृक्षाणां” अर्थात वृक्षों में वह अपने को पीपल बतलाते है। इतना ही नहीं वह ऋतुओं में बसन्त,नदियों में गंगा की भी घोषणा करते हैं। हरे-भरे वृक्षों से आच्छादित वृन्दावन की प्राकृतिक सुषमा से वह काफी प्रभावित नजर आते हैं। “वन में देहरूपकम” कह कर वह वृन्दावन को अपनी देह के समान बतलाते हैं।पर्यावरण में असंतुलन के कारण आज समूचा विश्व पर्यावरण की विकृति से जूझ रहा है। आज स्थिति इतनी भयावह हो गयी है कि पर्यावरण संरक्षण एक वैश्विक मुद्दा बन गया है।
लोकनायक भगवान श्रीकृष्ण की पर्यावरण संरक्षण की इस सुदीर्घ एवं अतिप्राचीन परंपरा को कायम रखना ही उनके प्रति सच्ची पूजा एवं श्रद्धा है।
जय श्रीकृष्ण।
राजेन्द्र वैश्य,
अध्यक्ष, पृथ्वी संरक्षण