76 साल की उम्र में ‘दिल तो बच्चा है जी’ लिखने वाले गुलजार उर्फ सम्पूर्ण सिंह कालरा की जिंदगी की कहानी फिल्मों से बिल्कुल अलग है। अपनी नज्मों से हमारे अहसासों को मखमल सा हल्का कर देने वाले सम्पूर्ण सिंह कालरा उर्फ़ गुलज़ार का जन्म 18 अगस्त 1936 में दीना, झेलम जिला, पंजाब, ब्रिटिश भारत में हुआ था, जोकि अब पाकिस्तान में है। एक लेखक बनने से पहले, गुलजार एक कार मैकेनिक के रूप में काम करते थे। मुंबई के एक गैराज में मोटर मैकेनिक का काम करने वाले उस लड़के ने जब लिखना शुरू किया तो उसकी आवाज में भारीपन था या नहीं, यकीन से नहीं कहा जा सकता। लेकिन उसके शब्दों में शोखी भरपूर थी। बिमल रॉय और ऋषिकेश मुखर्जी के साथ करियर शुरू करने वाले गुलजार की ताकत शब्दों से जज्बातों को सामने रख देना था।
अभी न पर्दा गिराओ, ठहरो, कि दास्ताँ आगे और भी है
अभी न पर्दा गिराओ, ठहरो !
अभी तो टूटी है कच्ची मिट्टी, अभी तो बस जिस्म ही गिरे हैं
अभी तो किरदार1 ही बुझे हैं।
अभी सुलगते हैं रूह के ग़म, अभी धड़कते हैं दर्द दिल के
अभी तो एहसास जी रहा है
14 साल तक गीत लिखने के बाद 1971 में ‘मेरे अपने’ फ़िल्म से उन्होंने डायरेक्शन के क्षेत्र में कदम रखा। उनका लिखा यूं ही किसी महफिल में उछाल दिया जाए तो उन्हें जानने वाले अंदाज़ा लगा लेंगे कि यह गुलज़ार ही रहे होंगे। यानी नज़्मों की विधा में शिल्प का एक सिग्नेचर उन्होंने गढ़ा है। इसके बावजूद एहसासों के स्तर पर वह हर बार चौंका देते हैं। गुलजार के बारे में कहा जाता है कि इनकी कविताएं एक कैनवास पर उतारे गए चित्र की भांति होती हैं।
चांद की ‘स्लेट’ पे लिखते लिखते
जब उंगली घिस जाती है
आंख के ‘लेज़र’ से मैं बाक़ी ख़त लिखता हूं
रिश्तों में रूहानियत का अहसास कराने वाले गुलजार को सुनकर तो इक खटास भी मामूली सी रिश्ते में आई कभी तो हम अधीर नहीं हुए। क्योंकि हम जानते थे कि झक सफेद कुर्ते और भारी सी आवाज वाला एक शख्स कहता है कि हाथ छूटे भी तो रिश्ते नहीं टूटा करते।
कि हमको मालूम है इश्क मासूम है
इश्क़ में हो जाती हैं गलतियां
सब्र से इश्क महरूम है
गुलजार के गीत हिंदी फिल्मों की गीत परंपरा में अपनी पहचान खुद हैं, प्रकृति के साथ उनके कवि का जैसा अनौपचारिक और घरेलू रिश्ता है, वैसा और कहीं नहीं मिलता। जितने अधिकार से गुलजार कुदरत से अपने कथ्य और मंतव्य के संप्रेषण का काम लेते रहे है, वैसा और भी कोई रचनाकार नहीं कर पाया है। न फिल्मों में और न ही साहित्य में।
तेरे लबों पर ज़बान रखकर
मैं नूर का वह हसीन क़तरा भी पी गया हूँ
जो तेरी उजली धुली हुई रूह से फिसलकर तेरे लबों पर ठहर गया था
यह गुलज़ार ही थे जिन्होने बताया कि हमारे रोजमर्रा के आस-पास के लफ़्ज कितने जिंदा हैं। उन्हें सुनना कुछ ऐसा था कि जैसे घास पर देर तक पसरे हुए ख़ुद घास हो गए हों और फिर एक काला-लाल वो कीड़ा होता है गोल सा, जो छूते ही फुर्र हो जाता है।
कहाँ छुपा दी है रात तूने
कहाँ छुपाए हैं तूने अपने गुलाबी हाथों से ठंडे फाये
कहाँ हैं तेरे लबों के चेहरे
कहाँ है तू आज-तू कहाँ है ?
कुछ नज्में-
मेरे रौशनदान में बैठा एक क़बूतर
मेरे रौशनदार में बैठा एक कबूतर
जब अपनी मादा से गुटरगूँ कहता है
लगता है मेरे बारे में, उसने कोई बात कहीं.
शायद मेरा यूँ कमरे में आना और मुख़ल होना
उनको नावाजिब लगता है.
उनका घर है रौशनदान में
और मैं एक पड़ोसी हूँ
उनके सामने एक वसी आकाश का आंगन.
हम दरवाज़े भेड़ के, इन दरबों में बन्द हो जाते हैं,
उनके पर हैं, और परवाज़ ही खसलत है.
आठवीं, दसवीं मंज़िल के छज्जों पर वो,
बेख़ौफ़ टहलते रहते हैं.
हम भारी-भरकम, एक क़दम आगे रक्खा,
और नीचे गिर के फौत हुए.
बोले गुटरगूँ…
कितना वज़न लेकर चलते हैं ये इन्सान
कौन सी शै है इसके पास जो इतराता है
ये भी नहीं कि दो गज़ की परवाज़ करें.
आँखें बन्द करता हूँ तो माथे के रौशनदान से अक्सर
मुझको गुटरगूँ की आवाज़ें आती हैं !!
अभी न पर्दा गिराओ, ठहरो , कि दास्तां आगे और भी है!
अभी न पर्दा गिराओ, ठहरो, कि दास्ताँ आगे और भी है
अभी न पर्दा गिराओ, ठहरो!
अभी तो टूटी है कच्ची मिट्टी, अभी तो बस जिस्म ही गिरे हैं
अभी तो किरदार ही बुझे हैं.
अभी सुलगते हैं रूह के ग़म, अभी धड़कते हैं दर्द दिल के
अभी तो एहसास जी रहा है.
यह लौ बचा लो जो थक के किरदार की हथेली से गिर पड़ी है.
यह लौ बचा लो यहीं से उठेगी जुस्तजू फिर बगूला बनकर,
यहीं से उठेगा कोई किरदार फिर इसी रोशनी को लेकर,
कहीं तो अंजाम-ओ-जुस्तजू के सिरे मिलेंगे,
अभी न पर्दा गिराओ, ठहरो!
मौत तू एक कविता है!
मौत तू एक कविता है.
मुझसे एक कविता का वादा है मिलेगी मुझको,
डूबती नब्ज़ों में जब दर्द को नींद आने लगे
ज़र्द सा चेहरा लिये जब चांद उफक तक पहुँचे
दिन अभी पानी में हो, रात किनारे के करीब
ना अंधेरा ना उजाला हो, ना अभी रात ना दिन
जिस्म जब ख़त्म हो और रूह को जब साँस आए
मुझसे एक कविता का वादा है मिलेगी मुझको
इक इमारत!
इक इमारत
है सराय शायद,
जो मेरे सर में बसी है.
सीढ़ियाँ चढ़ते-उतरते हुए जूतों की धमक,
बजती है सर में.
कोनों-खुदरों में खड़े लोगों की सरगोशियाँ,
सुनता हूँ कभी.
साज़िशें, पहने हुए काले लबादे सर तक,
उड़ती हैं, भूतिया महलों में उड़ा करती हैं
चमगादड़ें जैसे.
इक महल है शायद !
साज़ के तार चटख़ते हैं नसों में
कोई खोल के आँखें,
पत्तियाँ पलकों की झपकाके बुलाता है किसी को !
चूल्हे जलते हैं तो महकी हुई ‘गन्दुम’ के धुएँ में,
खिड़कियाँ खोल के कुछ चेहरे मुझे देखते हैं !
और सुनते हैं जो मैं सोचता हूँ !
एक, मिट्टी का घर है
इक गली है, जो फ़क़त घूमती ही रहती है
शहर है कोई, मेरे सर में बसा है शायद !