ख़बर है कि नीतीश जी एक बार फिर बिहार की शराबबंदी नीति की समीक्षा करने वाले हैं। जिस तरह राज्य के हजारों लोग महज़ शराब पीने की वजह से जेलों में सड़ रहे हैं, उसे देखते हुए इस समीक्षा की ज़रुरत महसूस भी की जा रही है। शराबबंदी बिहार सरकार का एक बेहतरीन फैसला था, लेकिन दुर्भाग्य से अति उत्साह में इसे बेहद ज़ाहिलाना तरीके से लागू किया गया। शराब पीना कोई ऐसा गुनाह नहीं जिसे ग़ैरजमानती बनाकर लोगों को जेल में डाल दिया जाय और उन्हें उतनी सज़ा दी जाय जितनी आमतौर पर गंभीर अपराधों में दी जाती है। किसी घर में शराब की बोतल मिलना कोई आतंकी घटना नहीं है जिसके लिए घर की औरतों समेत तमाम वयस्क सदस्यों को जेल में बंद कर दिया जाय। कारावास की सज़ा सिर्फ और सिर्फ अवैध शराब बनाने और दूसरे राज्यों से तस्करी कर शराब बेचने वाले लोगों के लिए होनी चाहिए। अगर सरकार राज्य में शराब की आपूर्ति रोकने में विफल है तो इसकी सज़ा सरकार के अधिकारियों को ही मिलनी चाहिए, प्रदेश की जनता को नहीं। हो रहा है इसका उल्टा। शराबबंदी से प्रदेश की पुलिस और उत्पाद विभाग की अवैध कमाई बेतहाशा बढ़ गई है। उनके संरक्षण में प्रदेश के हर शहर में शराब महज़ एक फोन कॉल पर उपलब्ध है। पीने वाले पी भी रहे हैं और पकडे जाने पर पुलिस को मोटी रकम देकर छूट भी रहे हैं। जो हजारों लोग शराब पीने के अपराध में अभी जेलों में हैं, उनमें ज्यादातर दलित और अत्यंत पिछड़े वर्ग से आने वाले गरीब लोग ही हैं।
न्याय का तक़ाज़ा है कि जेल की सजा का प्रावधान शराब के अवैध कारोबारियों और उन्हें संरक्षण देने वाले अधिकारियों के लिए होना चाहिए। पीने वालों को हतोत्साहित करने के लिए उनसे सिर्फ कठोर आर्थिक दंड की वसूली की जाय – पहली बार कुछ कम और उसके बाद हर गिरफ्तारी पर पहले से दोगुना। इससे प्रदेश के लोगों को राहत भी मिलेगी, बिहार के जेलों पर बोझ भी कम होगा और ज़ुर्माने से सरकार को इतनी आमदनी तो हो ही जाएगी कि वह शराबबंदी से होने वाली राजस्व की हानि की बहुत हद तक भरपाई कर सके।
लेखक ध्रुव गुप्त पूर्व आईपीएस अधिकारी हैं
(ध्रुव गुप्त फेसबुक वॉल से)