नज़रिया

कभी ऐसी थी हमारी पत्रकारिता – ध्रुव गुप्त

देश की मीडिया अभी अपनी विश्वसनीयता के सबसे बड़े संकट से गुज़र रही है। अपवादों को छोड़ दें तो मीडिया की प्रतिबद्धता अब देश के आमजन के प्रति नहीं, राजनीतिक सत्ता और उससे जुड़े लोगों के प्रति है। कुछ मामलों में यह प्रतिबद्धता बेशर्मी की तमाम हदें पार करने लगी है। वह इलेक्ट्रोनिक मीडिया हो या प्रिंट मीडिया, उसपर सत्ता और पैसों का दबाव इतना कभी नहीं रहा था जितना आज है। वज़ह साफ़ है। चैनल और अखबार चलाना अब अब कोई मिशन या आन्दोलन नहीं। राष्ट्र के पास जब कोई मिशन, कोई आदर्श, कोई गंतव्य नहीं तो मीडिया के पास भी क्या होगा ? ‘जो बिकता है, वही दिखता है’ के इस दौर में पत्रकारिता अब खालिस व्यवसाय है जिसपर किसी लक्ष्य के लिए समर्पित लोगों का नहीं, बड़े और छोटे व्यावसायिक घरानों का लगभग एकच्छत्र कब्ज़ा है। उन्हें अपने न्यूज़ चैनल या अखबार चलाने और उससे मुनाफा कमाने के लिए विज्ञापनों से मिलने वाली भारी भरकम रकम चाहिए और यह रकम उन्हें सत्ता और उससे निकटता से जुड़े व्यावसायिक घराने ही उपलब्ध करा सकते हैं। जो मुट्ठी भर लोग मीडिया को लोकचेतना का आईना और सामाजिक सरोकारों का वाहक बनाने की कोशिशों में लगे हैं, उनके आगे साधनों के अभाव में प्रचार-प्रसार और वितरण का गहरा संकट है। कुल मिलाकर मीडिया का जो वर्तमान परिदृश्य है, उसमें दूर तक कोई उम्मीद नज़र नहीं आती।

वैसे इस देश ने अभी पिछली सदी में आज़ादी की लड़ाई के दौरान पत्रकारिता का स्वर्ण काल भी देखा है। देश की आज़ादी, समाज सुधार और जन-समस्याओं को समर्पित ऐसे अखबारों और पत्रकारों की सूची लंबी है। बहुत कम लोगों को पता है कि देश में जनपक्षधर पत्रकारिता के इस दौर की शुरुआत उन्नीसवी सदी में उर्दू के एक अखबार से हुई थी। आमजन के मसले उठाने वाला पहला उर्दू अखबार ‘जम-ए-ज़हांनुमा’ 1822 में कलकत्ता से निकला था। सामाजिक समस्याओं के प्रति लोगों को जागरूक करने और प्रशासन का ध्यान आकृष्ट कराने में इस अखबार ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। ‘जम-ए-ज़हांनुमा’ के पंद्रह साल बाद 1837 में दिल्ली से देश का दूसरा उर्दू अखबार निकला। अखबार का नाम था ‘उर्दू अखबार दिल्ली’ और उसके यशस्वी संपादक थे मौलाना मोहम्मद बाक़ीर देहलवी। ‘उर्दू अखबार दिल्ली’ ज्वलंत सामाजिक मुद्दों पर जनचेतना जगाने वाला और देश के स्वाधीनता संग्राम को समर्पित देश का पहला लोकप्रिय अखबार था और मौलवी बाक़ीर पहले ऐसे निर्भीक पत्रकार जिन्होंने हथियारों के दम पर नहीं, कलम के बल पर आज़ादी की लड़ाई लड़ी और खूब लड़ी। मौलवी बाक़ीर देश के पहले और आखिरी पत्रकार थे जिन्हें स्वाधीनता संग्राम में प्रखर भूमिका के लिए अंग्रेजी हुकूमत ने मौत की सज़ा दी थी।

1790 में दिल्ली के एक रसूखदार घराने में पैदा हुए मौलवी मोहम्मद बाक़ीर देहलवी चर्चित इस्लामी विद्वान और फ़ारसी, अरबी, उर्दू और अंग्रेजी के जानकार थे। उस दौर के प्रमुख शिया विद्वान मौलाना मोहम्मद अकबर अली उनके वालिद थे। धार्मिक शिक्षा हासिल करने के बाद मौलवी बाक़ीर ने दिल्ली कॉलेज से अपनी पढ़ाई की। पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने पहले उसी कॉलेज मे फ़ारसी के शिक्षक की नौकरी की और फिर आयकर विभाग मे तहसीलदार का ओहदा संभाला। इन कामों में उनका मन नहीं लगा। उनकी तलाश कुछ और थी। 1836 में जब सरकार ने प्रेस एक्ट में संशोधन कर लोगों को अखबार निकालने का अधिकार दिया तो 1837 मे उन्होंने देश का दूसरा उर्दू अख़बार ‘उर्दू अखबार दिल्ली’ के नाम से निकाला जो उर्दू पत्रकारिता के इतिहास में मील का पत्थर साबित हुआ। इस साप्ताहिक अखबार के माध्यम से मौलवी बाक़ीर ने सामाजिक मुद्दों पर लोगों को जागरूक करने के अलावा अंग्रेजों की विस्तारवादी नीति के विरुद्ध जमकर और लगातार लिखा। देश के पहले स्वाधीनता संग्राम के पूर्व दिल्ली और आसपास के इलाके में अंग्रेजी साम्राज्यवाद के खिलाफ जनमत तैयार करने में ‘उर्दू अखबार दिल्ली’ की बड़ी भूमिका रही थी। इस अख़बार की ख़ासियत यह थी कि यह कोई व्यावसायिक आयोजन नहीं था। व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा का हथियार नहीं भी नहीं। यह एक मिशन के तहत ही शुरू हुआ और अपने उद्धेश्य के लिए लड़ते-लड़ते ही बंद हुआ। अखबार के खर्च के लिए उस ज़माने में भी उसकी कीमत दो रुपए रखी गई थी। अखबार छप और बंट जाने के बाद मुनाफे के जो पैसे बच जाते थे, उसे गरीबों और ज़रूरतमंदों में बांट दिया जाता था।

मौलवी बाक़ीर हिन्दू-मुस्लिम एकता के प्रबल पक्षधर रहे थे। 1857 में देश में स्वाधीनता संग्राम के उभार को कमज़ोर करने के लिए अंग्रेजों ने सांप्रदायिक दंगा भड़काने की एक बड़ी साज़िश रची थी। उन्होंने जामा मस्जिद के आसपास बड़े-बड़े पोस्टर चिपका कर हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच फूट डालने की कोशिशें की। अखबार के मुताबिक़ उन पोस्टरों में मुसलमानों से हिन्दुओं के खिलाफ़ जेहाद छेड़ने की अपील यह कहकर की गई थी कि ‘साहिबे किताब’ के मुताबिक मुसलमान और ईसाई दोस्त हैं और बुतपरस्त हिन्दू कभी उनके शुभचिंतक नहीं हो सकते। पोस्टरों में यह भी लिखा गया था कि अंग्रेजों द्वारा अपनी फौज के लिए निर्मित कारतूसों में मुसलमानों की धार्मिक आस्था का सम्मान करते हुए सूअर की चर्बी का इस्तेमाल नहीं किया गया है। इसका सीधा मतलब यह निकलता था कि उनमें गाय की चर्बी का इस्तेमाल होता था। मौलवी बाक़ीर को अंग्रेजों की साज़िश समझने में देर नहीं लगी। उन्होंने इस साजिश को बेनकाब करने में कोई कसर न छोड़ी। अपने अखबार में उन्होंने लिखा – ‘अपनी एकता बनाए रखो ! याद रखो, अगर यह मौक़ा चूक गए तो हमेशा के लिए अंग्रेजों की साजिशों, धूर्तताओं और दंभ के शिकार बन जाओगे। इस दुनिया में तो शर्मिंदा होगे ही, यहां के बाद भी मुंह दिखाने लायक नहीं रहोगे।’

उस दौर में जब देश में कोई सियासी दल नहीं हुआ करता था जो किसी मुद्दे को लेकर जनांदोलन खड़ा कर सके। किसी राजनीतिक संगठन के अभाव में इस अखबार ने लोगों को जगाने और आज़ादी के पक्ष में उन्हें संगठित करने में अहम भूमिका निभाई थी। 1857 मे जब स्वतंत्रता सेनानियों ने आखिरी मुग़ल सम्राट बहादुर शाह जफ़र के नेतृत्व में अंग्रेज़ो के ख़िलाफ़ बग़ावत का बिगुल फूंक दिया तो मौलवी बाक़ीर हाथ में कलम लेकर इस लड़ाई में शामिल हुए। संग्राम को समर्थन देने के लिए जब उनका अखबार अंग्रेजों की नज़र में चढ़ा तो उन्होंने ‘उर्दू अख़बार दिल्ली’ का नाम बदल कर बहादुर शाह जफ़र के नाम पर ‘अख़बार उज़ ज़फ़र’ कर दिया। अखबार के प्रकाशन का दिन भी उन्होंने बदल दिया। 17 मई, 1857 को इस अखबार ने विद्रोहियों के मेरठ से दिल्ली मार्च के दौरान दिल्ली में उनपर अंग्रेजी फौज के अत्याचार की एक ऐतिहासिक और आंखों देखी रिपोर्ट छापी थी। इस बहुचर्चित रिपोर्ट की विद्रोहियों और दिल्ली के आम लोगों में अंग्रेजी हुकूमत के प्रति आक्रोश पैदा करने में बड़ी भूमिका रही थी।.लार्ड केनिंग ने 13 जून 1857 को मौलवी साहब के बारे में लिखा था – ‘पिछले कुछ हफ्तों में देसी अखबारों ने समाचार प्रकाशित करने की आड़ में भारतीय नागरिको के दिलों में दिलेराना हद तक बगावत की भावना पैदा कर दी है।’

स्वाधीनता संग्राम के दौरान मौलवी बाक़ीर के लिखे कुछ उद्धरण उपलब्ध हैं। उन्होंने लोगों को यह कहकर ललकारा था – ‘मेरे देशवासियों, वक़्त बदल गया। निज़ाम बदल गया। हुकूमत के तरीके बदल गए। अब ज़रुरत है कि आप खुद को भी बदलो। अपनी सुख-सुविधाओं में जीने की बचपन से चली आ रही आदतें बदलो ! अपनी लापरवाही और डर में जीने की मानसिकता बदल दो। यही वक़्त है। हिम्मत करो और विदेशी हुक्मरानों को देश से उखाड़ फेको !’ विद्रोहियों की हौसला अफ़ज़ाई करते हुए उन्होंने लिखा था – ‘जिसने भी दिल्ली पर क़ब्ज़े की कोशिश की वह फ़ना हो गया। वह सोलोमन हों या फिर सिकंदर, चंगेज़ ख़ान हों या फिर हलाकु या नादिऱ शाह – सब फ़ना हो गए। ये फ़िरंगी भी जल्द ही मिट जाएंगे।’ बहुआयामी व्यक्तित्व के मौलवी साहब उस दौर के स्वतंत्रता सेनानियों के बीच अपने लेखन के अलावा अपनी जोशीली तक़रीर के कारण भी बहुत लोकप्रिय थे। जब भी विद्रोहियों का हौसला बढ़ाने की ज़रुरत होती थी, मौलवी साहब को उनकी आग उगलती तक़रीर के लिए बुला भेजा जाता था और वे ख़ुशी-ख़ुशी उन निमंत्रणों को स्वीकार भी कर लिया करते थे।

सितम्बर के शुरुआत मे अंग्रेजों की साजिशों और निर्ममता की वज़ह से विद्रोही कमज़ोर पड़ने लगे थे। उनकी पराजयों का सिलसिला भी शुरू हो गया। तबाही सामने दिख रही थी। इसके साथ ही मौलवी बाक़ीर के अखबार के प्रकाशन और वितरण पर भी गंभीर संकट उपस्थित हो गया। अफरातफरी के उस माहौल में अखबार का वितरण मुश्किल हो गया था। 13 सितम्बर 1857 को प्रकाशित अखबार के आखिरी अंक में मौलवी साहब के शब्दों में पराजय का यह दर्द शिद्दत से उभर कर सामने आया था। स्वाधीनता संग्राम में विद्रोहियों की अंतिम पराजय के बाद 14 सितंबर को हज़ारों दूसरे लोगों के साथ मौलवी बाकीर को भी गिरफ्तार कर लिया गया। दो दिनों तक असहनीय यातनाएं देने के बाद 16 सितंबर को उन्हें मेजर विलियम स्टीफेन हडसन के सामने प्रस्तुत किया गया। हडसन ने अंग्रेजी साम्राज्य के लिए बड़ा खतरा मानते हुए बगैर कोई मुक़दमा चलाए उसी दिन उन्हें मौत की सजा सुना दी। उसी दिन मुग़ल साम्राज्य के औपचारिक तौर पर समाप्त होने के पहले ही कलम के इस 69-वर्षीय सिपाही को दिल्ली गेट के मैदान में तोप के मुंह पर बांध कर उडा दिया गया जिससे उनके वृद्ध शरीर के परखचे उड़ गए।

देश की पत्रकारिता के इतिहास में कलम की आज़ादी के लिए मौलवी बाक़ीर का यह बलिदान सुनहरे अक्षरों में लिखने लायक था, मगर दुर्भाग्य से यह नहीं हुआ। आज़ादी की लड़ाई के शहीद देश के उस पहले और आखिरी पत्रकारको वह सम्मान नहीं मिला जिसके वे वाकई हक़दार थे। न कभी देश के इतिहास ने उन्हें याद किया और न देश की पत्रकारिता ने। यहां तक कि उनकी जन्मभूमि और कर्मभूमि दिल्ली में उनके नाम का एक स्मारक तक नहीं है। आज जब लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहे जाने वाली मीडिया की जनपक्षधरता संदिग्ध है और वह विश्वसनीयता के संकट से रूबरू है तो क्या पत्रकारिता के इतिहास के इस विस्मृत नायक के आदर्शों और जज्बे को याद करने की सबसे ज्यादा ज़रुरत नहीं है ?

(ध्रुव गुप्त की फ़ेसबुक वाल से साभार)

द फ्रीडम स्टॉफ
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