नज़रिया

संवेदनशील हृदय बिना पुलिस और अदालतों में न्याय संभव नहीं- ध्रुव गुप्त

बात तीस साल पहले की है जब मैं बिहार के एक बेहद अपराधग्रस्त जिले पश्चिमी चंपारण में पदस्थापित था। एक भयंकर बरसाती रात में मैं गंडक दियारे में छापेमारी करने के बाद पुलिस के कुछ जवानों के साथ बगहा लौट रहा था। रास्ते में गाडी बिगड़ गई जिसके बनने की संभावना अगली सुबह तक नहीं थी। गांव से कई घरों से कुछ खाट मंगाकर हम किसी किसान के एक बड़े-से बरामदे में आराम करने लगे। मैं थका हुआ था। एक ग्रामीण ने आकर बताया कि एक लड़का आपके पैर दबाना चाहता है। मेरे हां कहते ही बीस-बाईस साल का एक लड़का आकर मेरे हाथ-पैर दबाने लगा। अपना नाम उसने उद्धव यादव बताया। थोड़ा आराम आने पर मैंने उससे पूछा – ‘तुम यही काम करते हो ?’ उसने कहा – ‘नहीं। मुझे आपसे कुछ कहना था, सर। मैं मेट्रिक पास हूं और बहुत अच्छा बिरहा गाता हूं। आप सुनेंगे ?’ मेरे पैर दबाते हुए उसने आधे घंटे तक बिरहा गाकर सुनाया। आवाज़ में बुलंदी के साथ कशिश और दर्द ऐसी कि मेरी आंखें नम हो गईं। मुझे ऐसे गुनी कलाकार से पांव दबवाते शर्मिंदगी हुई और मैं उठ बैठा। पूछा – ‘तुमने बहुत दिनों बाद मुझे रुलाया है। तुम्हें क्या इनाम दूं, उद्धव ?’ उसने सोचने के बाद कहा -‘गांव के एक बाबू साहेब हैं। मेरे बाबूजी ने उनसे कुछ कर्ज लिया था। बदले वे दस सालों तक उनके यहां बेगारी खटते रहे। कर्ज फिर भी बढ़ता गया। दो साल पहले बाबूजी मरे तो वे चाहते थे कि उनकी जगह मैं उनके यहां मुफ्त काम करूं। मैं गांवों में घूम-घूमकर बिरहा गाता हूं जिससे थोड़ी-बहुत आमदनी भी हो जाती है। मैंने बाबू साहेब को इंकार कर दिया। अगले दो-तीन महीनों में थाने में मेरे खिलाफ लूट और डकैती के तीन केस दर्ज हो गए। मैं तबसे मारा-मारा फिर रहा हूं। एक कवि जी ने आपके बारे में बताया तो मैं हिम्मत जुटाकर आपके पास आया हूं। आप बस मेरे साथ इन्साफ कर दीजिये, सर !’

सुबह थाने पर जाकर मैंने थाने से तीनों केसों रिकॉर्ड देखे। पढ़ने भर से तीनों मामले बनावटी लग रहे थे। तीनों के घटना-स्थल एक दूसरे से बहुत दूर थे, लेकिन तीनों के गवाह उसी बाबू साहेब के परिवार के लोग, दूर के रिश्तेदार और उनके नौकर-चाकर थे। उद्धव से लूट का कोई सामान भी बरामद नहीं हुआ था। मैंने तीनों केस खत्म करने के आदेश दिए। उद्धव की आंखों में ख़ुशी के आंसू थे। मैंने पूछा – ‘अब क्या करोगे ?’ उसने कहा -‘इस इलाके में रहूंगा तो जिन्दा नहीं बचूंगा। मैं कमाई करने पंजाब चला जाऊंगा।’ मेरी जेब में डेढ़ हजार रूपये थे जो मैंने उसे दे दिए। वहां मौजूद आसपास के गांवों के कुछ लोगों ने चंदा कर उसे तीन हजार रुपए दिए। पता चला कि अगले ही दिन वह पंजाब चला गया। फिर कभी दुबारा उससे भेंट नहीं हुई और न उसके बारे में कुछ सुनने को मिला । तीस साल बाद पिछले हफ्ते उसका फोन आया तो मैं उसे पहचान नहीं सका। अपना परिचय देते हुए उसने बताया कि अपनी आपबीती बताने पर अमृतसर के एक कवि जी ने उसे मेरा नंबर दिया है। वह खुशी के मारे रो रहा था। मेरे बहुत समझाने के बाद वह शांत हुआ। उसने कहा कि दस साल तक खेतों में मजदूरी करने के बाद उसने अमृतसर में एक छोटा-सा होटल खोल लिया था। अब उसकी बीवी भी है और कॉलेज तथा स्कूल में पढ़ने वाली दो प्यारी बेटियां भी। उसने बताया कि उसका परिवार मुझे बहुत याद करता है। उसने मुझे अमृतसर आकर अपने परिवार से एक बार मिल लेने की कसम दी।

आज मन बहुत भावुक है। उससे जीवन में एक बार मिलूंगा जरूर। एक अर्थ में वह मेरा गुरु भी है। अपनी सेवा के शुरूआती दिनों में उसी ने मुझे सिखाया था कि पुलिस और अदालतों में इन्साफ तब तक संभव नहीं जब तक अधिकारियों के पास एक संवेदनशील ह्रदय और संचिकाओं तथा गवाहों के पार देखने और महसूस करने की आंतरिक शक्ति न हो !

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