राष्ट्रीय ब्यूरो: अयोध्या में छह दिसंबर 1992 को ढांचा ढहाने की घटना के साथ ही राजनीतिक, सामाजिक और न्यायिक मंच पर तीखी प्रतिक्रिया हुई थी। किसी ने इसे रामभक्तों का उदगार बताया तो किसी ने देश के सामाजिक ढांचे के ताने बाने पर प्रहार, भाजपा नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने राष्ट्रीय शर्म करार दिया था तो सुप्रीम कोर्ट ने इसे गैरकानूनी ठहराया था।
पहली पर लिब्रहान आयोग ने सुनियोजित साजिश करार दिया था
पहली पर लिब्रहान आयोग ने इसे सुनियोजित साजिश करार दिया और अब अगले हफ्ते के फैसले में विशेष अदालत तय करेगी कि ढांचा ध्वंस में कोई साजिश थी या नहीं, अगर थी तो कौन गुनहगार कौन थे। सुनवाई को लंबी प्रक्रिया में कई आरोपियों को कोर्ट मे मौजूद होना पड़ा। हाल में लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी को वीडियो कांफ्रेसिंग के जरिए शामिल होने की छूट दी गई थी।
वैसे तो 30 सितंबर को अयोध्या प्रकरण की सुनवाई कर रहे लखनऊ के विशेष जज का फैसला ही ढांचा विध्वंस के अपराधियों की पहचान और सजा तय करेगा, लेकिन 9 नवंबर 2019 को अयोध्या राम जन्मभूमि मामले में आए सुप्रीम कोर्ट के फैसले में की गई टिप्पणी भी बहुत महत्वपूर्ण है।
अयोध्या में ढांचा ढहाया जाना कानून का गंभीर उल्लंघन था: सुप्रीम कोर्ट
सुप्रीम कोर्ट ने अयोध्या राम जन्मभूमि के मालिकाना हक के विवाद में दिए गए फैसले में कहा था कि 6 दिसंबर 1992 को ढांचा ढहाया जाना कानून का गंभीर उल्लंघन था। ढांचा ढहाया जाना सुप्रीम कोर्ट के यथास्थिति कायम रखने के आदेश और सुप्रीम कोर्ट को इस बारे में दिए गए आश्वासन का उल्लंघन था। फैसले में कोर्ट ने यह भी कहा था कि मुसलमानों को मस्जिद से जिस तरह वंचित किया गया उस तरीके को कानून मानने वाले धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र में नहीं अपनाया जाता।
सुप्रीम कोर्ट के फैसले में की गई ये टिप्पणियां भले ही लखनऊ की विशेष अदालत में लंबित ढांचा ढहने के आपराधिक मुकदमे में कोई महत्व न रखती हों, लेकिन पहली निगाह में ढांचा ढहने की घटना को गलत जरूर बताती हैं। इतना ही नहीं सीबीआइ ने अयोध्या प्रकरण की सुनवाई कर रही लखनऊ की विशेष अदालत में अभियुक्तों को दोषी ठहराने की अपील करने वाली अपनी लिखित दलील में सुप्रीम कोर्ट के फैसले में ढांचा ढहाने की घटना को कानून का उल्लंघन बताए जाने के इस अंश का हवाला दिया है।
छह दिसंबर 1992 को ढांचा ढहने की घटना के दस दिन बाद केंद्र सरकार की तत्कालीन नरसिंह राव सरकार ने घटना की जांच के लिए जस्टिस एमएस लिब्रहन की अध्यक्षता में एक सदस्यीय जांच आयोग गठित किया था। आयोग को ढांचा ढहने की घटना और परिस्थितियों की जांच करने के साथ यह भी देखना था कि इसके लिए कौन लोग जिम्मेदार थे। इस आयोग का 48 बार कार्यकाल बढ़ाया गया और 17 साल बाद 2009 में लिब्रहन आयोग ने केंद्र सरकार को अपनी रिपोर्ट सौंपी।
रिपोर्ट में लिब्रहन आयोग ने ढांचा ढहने की घटना को सुनियोजित साजिश बताया था। आयोग ने 68 लोगों को जिम्मेदार माना था। इन 68 लोगों में बहुत से वे लोग हैं जो इस मुकदमें में अभियुक्त हैं और जिनके बारे में 30 सितंबर को लखनऊ की विशेष अदालत फैसला सुनाने वाली है। वैसे तो लिब्रहन आयोग के निष्कर्षो का भी लंबित मुकदमें के फैसले पर कोई असर नहीं होगा, लेकिन रिपोर्ट घटना का विश्लेषणात्मक ब्योरा पेश करती है जिसकी विषयवस्तु ठीक वही है जो इस मुकदमें की है।