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आदिवासी समुदाय अपनी पुरानी परंपराओं को जिंदा रखे हुए हैं, आज भी वो पलाश के फूलों से बनाते हैं रंग 

रंगों का त्यौहार होली आते ही बाज़ार में सिंथेटिक रंगों से दुकानें सज चुकी हैं, लेकिन आज भी आदिवासी समुदाय अपनी पुरानी परंपराओं को जिंदा रखे हुए हैं, वो पलाश के फूलों से रंग बनाते हैं। यहां कई दिन पहले से होली की त्योहार शुरू हो जाता है, यहां पर बांस से बने मुखौटे को लगाकर बड़े ही धूमधाम से ढोलक की थाप पर फाग गीत गाकर होली मनाते हैं।

छत्तीसगढ़ की राजधानी से 200 किलोमीटर दूर कबीरधाम जिले के पंडरिया ब्लॉक में आने वाले आदिवासी इलाके कांदा वाणी पंचायत के आश्रित गांव बासाटोला में रहने वाले गोपी कृष्ण सोनी बताते हैं, “होली की तैयारी यहां एक महीने पहले से शुरू होने लगती है। आदिवासी महिलाएं पलाश के फूलों को तोड़ कर के एकत्रित करने लगती हैं, फिर उनको धूप में सुखा कर गुलाल बनाती हैं। इसी गुलाल को एक दूसरे के टीका लगा कर के होली मनाते हैं। वहीं पुरुष वर्ग बांस का मुखौटा तैयार करते हैं और उसको सजा कर मुंह पर मुखौटा लगा कर के सात दिनों तक होली मानते हैं।”

राम सिंह बैगा बताते हैं, “आदिवासी समुदाय होली के त्यौहार को हिंदुओं की देखा देखी करके मनाते हैं। होली के दिन पहले सेमल, तेंदू या बांस का डंडा जंगल से काटकर लाया जाता है फिर उसको गाँव के सार्वजनिक स्थान पर उसमें झाड़ू और सूपा को बाधा जाता है। इसके बाद जमीन में गड्ढे खोद करके मुर्गी का अंडा अंगुली का छल्ला और सिक्का रखा जाता है। डंडे के पास रात भर नगाड़ा बजाकर फाग गीत गाते है और नाचते हैं। पुर्णिमा की रात के अंतिम पहर में गाँव का मुकद्दम (पटेल मुखिया) होलिका दहन करता है।

द फ्रीडम स्टॉफ
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