आठ साल पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी नौकरियों की बात करते थे। कहते थे, हर साल करोड़ों नई नौकरियों का सृजन होगा और युवाओं को नए अवसर मिलेंगे। लेकिन, आज आठ साल बाद मोदी की सरकार इस बात को मानने को भी तैयार नहीं है कि बेरोजगारी का विशालकाय पशु हमारे सामने खड़ा है।
देश पहले से ही नीतिगत भ्रम से जूझ रहा है, ऐसे में 2022-23 के बजट का पेश होना न होना एक जैसा ही लगता है क्योंकि देश के सामने जो आर्थिक समस्याएं हैं, मोदी सरकार ने उन्हें दूर करने का कोई प्रयास होता इस बजट में सामने रखा ही नहीं है। बेहद निराशाजनक बजट में बेरोजगारी संकट के समाधान का खाका तो दूर, बढ़ती महंगाई और बेकाबू होते खरेलू खर्चों से निपटने का भी विजन सामने नहीं आया है। आयकर आनी इनकम टैक्स ही नहीं पेट्रोलिम उत्पादों (पेट्रोल-डीजल) पर किसी एक्साइज कटौती का भी ऐलान नहीं किया गया है। साफ हो चुका है कि वित्त मंत्री के 90 मिनट का भाषण सिर्फ एक परंपरा का निर्वहन था जिससे किसी किस्म की कोई उम्मीद नहीं की जा सकती।
जैसे-जैसे बजट की जानकारियां सामने आईं है उससे आशंका बन गई है कि आने वाले दिनों में खाद्य पदार्थों और खाद पर मिलने वाली सब्सिडी पर कैंची चल सकती है, साथ ही कुछ ऐसा भी हो सकता है जिससे आम आदमी का जीवन और मुश्किल भरा हो जाए। संकेत मिले हैं कि एफसीआई (भारतीय खाद्य निगम) को मनरेगा के तहत मिलने वाली सब्सिडी को 2,10,929 करोड़ (2021-22 के संशोधित अनुमान) से घटाकर 1,45,919.9 करोड़ कर दिया गया है। यानी 65 हजार करोड़ या करीब 31 फीसदी की कटौती। इसी तरह यूरिया पर भी सब्सिडी को 75,930.43 करोड़ से घटाकर 63,222.32 करोड़ रुपए कर दिया गया है।
इससे भी बड़ी चिंता ब्याज भुगतान और कर्ज प्रबंधन की बढ़ती कीमत है। यह पिछले 8.13 लाख करोड़ से बढ़कर 9.40 लाख करोड़ हो गई है। इसका अर्थ है कि खुल खर्च जो पिछले साल 21.5 फीसदी था वह अब बढ़कर 23.8 फीसदी हो गया है।
लेकिन सबसे बड़ा सवाल रोजगार का है। कुछ दिनों पहले ही हजारों युवाओं ने रेलवे में भर्ती प्रक्रिया के खिलाफ भारी विरोध प्रदर्शन किया। ध्यान देने की बात है कि कुल 35000 नौकरियों के लिए 1.25 करोड़ युवाओं ने अर्जी भरी थी। ये आंकड़े ही रोजगार के मोर्चे पर संकट का संकेत देते हैं। अनुमान है कि आज देश में करीब 20 करोड़ नौकरियां नहीं हैं। हमारी कामकाजी आबादी के हिसाब से देखें तो गमें 60 करोड़ रोजगार या नौकरियों की जरूरत है, लेकिन देश में रोजगार या नौकरियों से जुड़े लोगों की संख् 40 करोड़ ही है।
वित्तमंत्री ने अपने भाषण में अगले पांच साल के दौरान 60 लाख नौकरियां पैदा करने की बात की है। उन्होंने कहा, “उत्पादकता आधारित 14 क्षेत्रों में आत्मनिर्भर भारत के विजन को अपनाते हुए अच्छा रिस्पांस मिला है और उनमें आने वाले 5 साल में 60 लाख नई नौकरियों का सृजन होगा। साथ ही अगले 5 साल में 30 लाख करोड़ का अतिरिक्त उत्पादन भी होगा।”
लेकिन बजट भाषण में ऐसा कोई संकेत नहीं है कि इस लक्ष्य को हासिल कैसे किया जाएगा। यानी यह घोषणा भी सरकार की अन्य योजनाओं की तरह ही होगी जिसमें सबकुछ पांच साल में हासिल करने की बात की गई है। हमने सबके लिए आवास योजना और किसानों की आय दोगुनी करने के वादे देख लिए हैं और उनकी हश्र भी हमें पता है।
वित्तमंत्री यह कहते हुए अपनी सरकार की पीठ थपथपा तो दी कि अर्थव्यवस्था में तेज सुधार और रिकवरी हो रही है। उन्होंने कहा, “कुल मिलाकर अर्थव्यवस्था में तेज रिकवरी हो रही है जिससे पता चलता है देश मजबूती के साथ आगे बढ़ रहा है। भारत की आर्थिक विकास दर 9.2 फीसदी रहने का अनुमान है जो सभी बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में सबसे अधिक है।”
लेकिन तथ्य तो यह है कि भारतीय अर्थव्यवस्था अभी वहां पहुंची है जहां कोविड महामारी शुरु होने से पहले थी। 2019-20 में देश की कुल जीडीपी करीब 145 लाख करोड़ होने का अनुमान था जोकि वित्तीय वर्ष खत्म होने तक यह करीब 147 लाख करोड़ पहुंची थी यानी अर्थव्यवस्था में कोई सुधार नहीं हुआ था। ऐसे में 9.2 फीसदी की विकास दर का अनुमान सिवाय एक आंकड़े के और कुछ नहीं। क्योंकि यह साबित हो चुका है कि महामारी से भारत की अर्थव्यवस्था सर्वाधिक प्रभावित हुई थी।
टीवी चैनलों को देखें तो कार्पोरेट जगत के लोग और पैनल में हिस्सा लेने वाले विश्लेषक बजट की तारीफ करने में बगलें झांकते नजर आए क्योंकि बजट में कोई आशा की किरण ही नहीं दिखती, बल्कि देश के सामने एक गंभीर प्रश्न भी खड़ा हो गया है कि आखिर बीते 8 साल में इस सरकार ने हासिल क्या किया है। और मोदी सरकार देश के सामने कौन सी आर्थिक विरासत छोड़कर रवाना होगी?
मनमोहन सिंह के कार्यकाल में देश की अर्थव्यवस्था में तीन गुना से ज्यादा इजाफा हुआ और उनके शासन के अधिकतर वर्षों में जीडीपी ग्रोथ 8 फीसदी से ज्यादा रही। मोदी सरकार के दौर में न सिर्फ विकास दर में जबरदस्त सुस्ती देखी गई बल्कि आय असमानता में भी बड़ी खाई देखी गई। इससे एक ऐसा चक्र शुरु हुआ जिसमें उपभोग कम हुआ और नए प्रोजेक्ट में कार्पोरेट निवेश यानी निजी निवेश लगभग बंद ही हो गया।
बीजेपी ने 2014 में आर्थिक पुनर्जीवन यानी अच्छे दिनों का वादा किया था, लेकिन बीते आठ साल में इस सरकार ने कामकाजी और मध्य वर्ग को सिवाए तकलीफें देने के और कुछ नहीं किया। जाहिर है कि भारत के इतिहास में देश के आठ साल बेहद निराशाजनक तरीके से बरबाद कर दिए गए।