साहित्य

विक्रम सिंह चहल की कविता एक छोटी क्रांति- अपना वजूद

कल पड़ोस मे चीखें उठी तो
मैं भी पहुँचा ,
देखा तो आवाज़े सूखी सूखी थी
लहू आँख से छलक रहा था
पगलाया एक बाप
दौड़ दौड़ सब से कहता
मेरी फूल सी गुड़िया रौंद दिया ज़ालिम ने
माँ ढूँढ रही थी बेटी
के बदन पे कुछ साँसें ,
काश कहीं कोई नस फिर धड़क उठे,
सब जान रहे अपराधी जो
जंगल राज के राजा के रिश्ते मे था,
वो बाप भला भी क्या करता
वो कोष रहा था किस्मत अपनी
कोष रहा था किस मूहूर्त मे जन्मी ये
मा चीख चीख कर
सर ज़मीन पे पटक रही थी
करती भी क्या उसकी फुलवारी
जो उजड़ चुकी थी .

थोड़ी देर के बाद वहाँ
पर पुलिस आ गयी
मां बाप को रोते देखा तो
उनको राहत की साँस मिली
शिनाख्त से ब्चे खुश हुए ,
आस पड़ोस में पूछ लिया
की कैसे हुआ ?
जो पता चला वो नोट किया फिर चले गये ,
छोटा सा केस थे बलात्कार का
बोल दिया और बैठ गये .
कुछ देर वहाँ के सन्नाटे को
मैं देख रहा था
जब अर्थी सजी तो सब ने कांधा जोड़ दिया
पहुच गये बगिया मे
जाली चिता तो आवाज़ उठी
कल तेरी बेटी
अरे मा के सपूतों कल तेरी बेटी ,
यही बगल मे ले आओगे
चुपचाप जला के चले जाओगे
कल अपनी बेटी ,
वहाँ चिता भी चीख
चीख कर बुझ गयी
बस बाप कपकपि भरता गुस्से मे था
पुलिस भी आकर लौट गई
ऑर्डर जो था कुछ ना करने का

बाप भी आख़िर क्या करता
उसने खंज़र थाम लिया
उसका सीना धड़क रहा था तो
उठा लिया फिर उसने खंज़र
सारी रात
मान और खंज़र पैना किया
सुबह हुई पहुंचा वहाँ
जहाँ उसे जाना था
फिर जी भर उसने खून पिया
एक बाप ने कर दिखलाया
जो सरकार कभी ना कर पाई

ये छोटी क्रांति थी
अपना वजूद

 

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