कांग्रेस ने हमें धोखा दिया, हमें भेड़ियों के सामने फेंक दिया… भारत विभाजन की नेहरू-जिन्ना की आपसी सहमति के बाद उनके इस फ़ैसले से खीझे हुए एक पठान ने ये बात कही थी, जिन्हें दुनिया सीमांत गांधी कहती है. भारत माँ के सच्चे सपूत खान अब्दुल गफ्फार खान उर्फ सीमांत गांधी ताउम्र एक भारत, श्रेष्ठ भारत के पक्ष में अपनी आवाज बुलंद करते रहे.
सीमांत गांधी नाम उन्हें इस वजह से दिया गया क्योंकि वो जिस जगह से आते थे वो आजादी पूर्व भारत का उत्तरी पश्चिमी हिस्सा था जिसका कुछ हिस्सा आज के पाकिस्तान और कुछ अफगानिस्तान में है. इसके अतिरिक्त बापू के रास्ते पर चलते हुए वो अहिंसावादी तरीके से अपने आंदोलन धर्म को भी निभाते थे. उन्हें बादशाह खान भी कहा जाता था.
उत्तरी पश्चिमी सीमा प्रांत में तो उनकी जबर स्वीकार्यता थी ही, साथ ही साथ देश के दूसरे हिस्से में भी उनके जबरदस्त चाहने वाले थे. उनकी लम्बी कदकाठी को देखते हुए ब्रिटिश भारतीय सेना ने उन्हें अपने यहाँ जॉइन करने को कहा मग़र खान साहब ने इस प्रस्ताव को अस्वीकार्य कर दिया. आजादी का परवाना भला कैसे ब्रिटिश की सोहबत स्वीकारता!
सविनय अवज्ञा आंदोलन के दौरान जब गांधी जी ने कहा कि जो जहां है, वही रहे और वही रहकर आंदोलन को धार दे तो उनके सच्चे अनुयायी सीमांत गांधी ने पेशावर इलाके में आंदोलन की बागदौड़ संभाली और आंदोलन को अहिंसापूर्वक संचालित किया.
खुदाई खिदमतगार अर्थात भगवान का सेवक मने सीमान्त गांधी और उनके साथी लाल कुर्ती दल के सदस्य जिसमें महिला और पुरूष दोनों शामिल थे, ने मिलकर अंग्रेजो के ख़िलाफ़ जबरदस्त मुहिम छेड़ रखी थी. भारी जनसमर्थन को देखकर ब्रिटिश घबड़ा भी जाते है और फिर गढ़वाल रेजिमेंट को इन आंदोलनकारियो पर गोलियां चलाने का भी आदेश देते है मग़र निहत्थे आंदोलनकारियों पर गोलियां चलाने से गढ़वाली सैनिक इनकार कर देते है.
इसी बीच 23 अप्रैल 1930 के दिन पेशावर के किस्सा ख्वानी बाजार में शांतिपूर्ण तरीके से आंदोलन कर रहे आंदोलनकारियों पर ब्रिटिश सेना के द्वारा गोलियां चला दी जाती है और इस नरसंहार में कहा जाता है कि 250 से 300 मौतें हो जाती है.जलियांवाला बाग के बाद ये दूसरा बड़ा नरसंहार होगा.
1935 के भारत अधिनियम के तहत जब 1937 में प्रांतीय चुनाव होते है तो फिर उत्तरी पश्चिमी सीमा प्रान्त में कांग्रेस के सहयोग से खान साहब के बड़े भाई अब्दुल जब्बार खान मुख्यमंत्री बनते है. एक धर्मनिरपेक्ष व्यक्ति को मुख्यमंत्री बनता देख जिन्ना घबड़ा जाता है और इस चुनाव में चूंकि मुस्लिम लीग को सीटें भी न मिली थी तो वो इस चुनाव का और कांग्रेसियों का विरोध भी करता है.
जिन्ना के 1940 में मुस्लिम लीग के बैनर तले रखे गए द्विराष्ट्र सिद्धांत को सीमांत गांधी न सिर्फ अस्वीकारते है बल्कि तगड़ा प्रतिकार करते है और अपने बड़े के साथ बापू से मिलने वर्धा जाते है. जहां वो कई दिनों तक रहते है ताकि भारत विभाजन की ये जिन्ना दुःस्वप्न सच न हो सकें.
इसी बीच क्रिप्स प्रस्ताव भारत आता है और क्रिप्स प्रस्ताव के विरोध में जब गांधी जी भारत छोड़ो आंदोलन की शुरूआत करते है तो सीमांत गांधी उसमें भी भरपूर सहयोग देते है. इसके बाद वेवेल योजना आती है और फिर कैबिनेट मिशन 1946 में जब आता है और मुस्लिम लीग की पृथक राष्ट्र की मांग को अस्वीकारता है तो सर्वाधिक खुशी इसी पठान के बन्दे को होती है क्योंकि उनके लिये भारत माँ से प्यारा कुछ न है.
फिर माउंट बेटेन भारत आता है और वो नेहरू, पटेल, जिन्ना सहित सभी बड़े नेताओं से बात करता है मग़र वो सीमांत गांधी से बातचीत न करता है जबकि उनके बड़े भाई उत्तर पश्चिम सीमा प्रान्त के मुख्यमंत्री भी होते है. 3 जून 1947 की बेटेन योजना में जब भारत विभाजन के प्रस्ताव को स्वीकृति दी जाती है तो भारत माँ का ये लाल रो पड़ता है. उसके एक आंख से भारत के आज़ाद होने की खुशी के आंसू तो दूसरी आंख से भारत विभाजन के दुःख के आंसू होते है.
जिन्ना और बेटेन ने कुटिलता पूर्वक मुस्लिम बाहुल्य इलाकों पंजाब, सिंध और बंगाल में तो विधान परिषद के निर्णयों के आधार पर पाकिस्तान में शामिल होने के विकल्प की बात कही मग़र उत्तर पश्चिम सीमा प्रान्त में जनमत संग्रह की बात कह दी क्योंकि उनको मालूम था कि यहां जब्बार खान मुख्यमंत्री है और इधर सीमांत गांधी की अच्छी पकड़ है तो सारे के सारे विधायक उनके विपरीत मत देंगे. हालांकि जनमत संग्रह के दौरान जिन्ना वहां की जनता को बहकाने में कामयाब हो जाता है और ये क्षेत्र पाकिस्तान में ही मिला दिया जाता है.
इसके बाद खान साहब पाकिस्तान में ही रहने का निर्णय करते है और आजादी के पहले वाली उनकी लड़ाई अब भी जारी रहती है. वो दुर्भाग्यवश पाकिस्तान में चले भले गए थे मग़र दिल से वो सदैव हिंदुस्तान को ही पूजते रहे. इसके बाद उनकी लड़ाई पाकिस्तान सरकार से पख्तून प्रदेश की स्वायत्तता को लेकर शुरू होती है. उनका अधिकांश समय पाकिस्तान सरकार की नजरबंदी में ही बीतता रहता है.कुल मिलाकर वो 35 बरस जेल में ही रहते है. अपने मरने से एक बरस पहले उन्हें 1987 में भारत सरकार द्वारा देश का सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न दिया जाता है मानो वो भारत माँ के इसी आशीर्वाद का ही इंतज़ार कर रहे थे. देह त्याग के वो दूसरी दुनिया में भले चले गए हो मग़र अपनी सच्चे देशभक्ति भाव की वजह से वो अनादि काल तक जनता के दिलों के जीवित रहेंगे.
लेखक: संकर्षण शुक्ला, युवा टिप्पणीकार