कार्ल मार्क्स ने अगर कहा है –धर्म मनुष्यों के लिए अफीम है ,तो कुछ यों ही नहीं कह दिया है| धर्म की अफीम के नशे में भूले लोगों का शोषण हम देख रहे हैं ।हम गिरोह -के -गिरोह, संगठन-के-संगठन ‘अफ़ीमचियों’ के कारनामे देखते रहते हैं ।मगर का यह आखिरी वाक्य है ।इसके पहले उन्होंने धर्म के बारे में और भी बहुत कुछ कहा है,जैसे धर्म जनता के दुःख दर्द और प्रतिशोध की अभिव्यक्ति है।अफीम का नशा अफीम से नहीं उतरता,जैसे कांटे से काँटा निकल जाता है ।इस्लाम की अफीम का नशा हिन्दू धर्म की अफीम से नहीं उतरता –इस से तो डबल नशा हो जाता है। अफीम जिसे ज्यादा चढ़ गयी हो डॉक्टर लोग उसे जबरदस्ती पानी पिला-पिलाकर उलटी कराते हैं,तब पेट खाली होता है और नशा उतरता है।
तमाम झूठे विश्वासों , मिथ्याचारों, कर्मकांडों, तर्कहीन धारणाओं, पाखंडों को कंठ में ऊँगली डाल–डालकर और पानी भरकर उलटी करानी पड़ती है,तब धर्म की अफीम का नशा उतरता है । अगर यह न किया जाए तो आदमी जहर से मर जाता है ।जातियों के कंठ में भी तर्क की उँगलियाँ डाली जाती हैं।सही विचारों का ताज़ा पानी उसके पेट में भरा जाता है,तब उलटी होती है,अफीम निकलती है और जाति को होश आता है।वरना ज्यादा नशे से जातियां मर जाती हैं,कौमें मर जाती हैं।
कभी-कभी दिलचस्प और दर्दनाक हालत पैदा होती है।कोई गुरु, मठाधीश, तानाशाह, अयातुल्ला, इमाम, शंकराचार्य, संघ का सरसंघचालक, जमायते इस्लामी के मुल्ला भोले भले-विश्वासी लोगों को धर्म की अफीम खिलाते हैं । वे नशे में पड़े रहते हैं और अफीम खिलानेवाले उनकी जेब खाली करते जाते हैं,कपडे उतरवा लेते हैं,अंगूठी छीन लेते हैं–यानी मजहब की अफीम के नशे में पड़ी जनता को लूटते जाते हैं। मगर कभी ऐसा भी होता है कि अफीमची शाह,तानाशाह या धर्म के नेता को पकड़कर उसके मुहँ में जबरदस्ती धतूरा डालते हैं,तब अफीम खिलानेवाले की दुर्गति होती है । धतूरा पागल बनाकर मार डालता है। वोल्टेयर जिंदगी भर इसे धर्म कि अफ़ीम से लड़ता रहा ।सामंतवाद और पादरीवाद कि उसने बहुत बखियां उधेड़ी । वह सचेत करता रहा– लोगों,इस अफीम को मत खाओ।उसका दिमाग ज्वालामुखी जैसा था, जिसमें से सामंतवाद और पादरीवाद, पोपवाद के खिलाफ व्यंग्य का लावा निकलता था ।कितनी ही किताबें और पेम्फ्लेट है उसके । उसने एक जगह लिखा है–
एक आदमी ईसाई बनाया जाता है।वह नीचे खड़ा है और ऊपर मंच पर पादरी है ।ईसाई धर्म में कॉन्फेशन (पाप स्वीकार) का बड़ा महत्व है। पादरी उससे कहता है–जीसस का आदेश है कि अपने पाप स्वीकारो ।तुम मेरे सामने अपने पाप स्वीकारो।वह नया ईसाई अपने पाप स्वीकार कर लेता है। फिर वह मंच पर चढ़ता है।पादरी का हाथ पकड़कर उसे नीचे धकेलता है |कहता है–अब में यहाँ खड़ा होऊंगा और तुम मेरी जगह खड़े होओ,नीचे। अब तुम अपने पाप स्वीकारो,क्योंकि जीसस ने कहा है–एक दूसरे के सामने अपने पाप स्वीकार करो।मैं पाप स्वीकार कर चुका।अब तुम मेरे सामने अपने पाप स्वीकार करो।ऐसा ही ईसा का आदेश है।पादरी नहीं उतरता तो नया ईसाई उसे ढकेलकर कहता है—बास्टर्ड !हरामजादे!स्वीकार कर अपने पाप!
ये पूजनीय पादरी पिछली शाम चर्च में प्राथर्ना करने आ रही जवान लड़की से झाडी में बलात्कार कर चुके थे।
अफीम खिलानेवाले को धतूरा खिलानेवाला मिल जाता है–और धतूरा प्राणलेवा होता है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेता भी प्राचीन हिन्दू धर्म,संस्कृति (ये रूढि को ही संस्कृति मानते हैं) आदि की अफीम खिलाते हैं।इन्हे संस्कृति क्या है यह नहीं मालूम। ये पुरातनता का नशा देते हैं।एक स्वयंसेवक का विवाह वैदिक रीति से हो रहा था ।उनके नागपुर के एक पूज्य नेता संयोग से शहर में थे। वे कार में बैठकर स्वयंसेवक को आशीर्वाद देने आये पर उसे सूट और टाई पहने देखकर वे क्षुब्ध हुए और बिना आशीर्वाद दिए लौट गए। दूसरे दिन वह अपने पूज्य नेता के पास पहुंचा |चरण छोकर बोला—आप क्या अप्रसन्न हैं ।आप बिना आशीर्वाद दिए ही लौट आये।नेता ने कहा–जब वैदिक पद्धति से विवाह करते हो,तो सारा वातावरण वैदिक युग का होना चाहिए –वेश भूषा भी।तुम सूट और टाई पहने थे,तुम्हे कोर्ट में शादी करनी थी। तुम्हारे विवाह में वैदिक वातावरण नहीं था।स्वयंसेवक कि बुद्धि का जो दरवाजा शाखा में बंद हो गया था,वह रात को प्रिया के स्वस्थ भोग से खुल गया था। उसने विनम्रता से कहा–यदि ऐसा ही है,तो आपको मोटरकार में नहीं,रथ में बैठकर आना था।
पाकिस्तान में जनरल जिया और मुल्लों ने जिन्हे अफीम खिलाई वे इन्ही को धतूरा खिलाने पर आमादा हैं। इस्लाम!इस्लाम!इस्लाम!दिन भर हर मोहल्ले कि मस्जिद से इस्लाम,रेडियो खोलो तो इस्लाम,टेलीविज़न लगाओ तो परदे पर मुल्ला तकरीर करता हुआ,बैंक इस्लामी कोड़े कि मार इस्लामी। पत्थरों से अवैध बच्चे को मार डालना इस्लाम,बजट को मस्जिद कि मीनार पर खड़े होकर खुद कि तरफ से पढ़ना इस्लाम, दाढ़ी बढ़ाना इस्लाम।जब भी वक्त मिले नमाज़ पढ़ने लगो।सातवी सदी के मक्का मदीना में रहो।यह माहौल जनरल जिया और मुल्लों ने बना रखा है। बहुत लोगों पर मजहब कि अफीम चढ़ गयी है ।मगर ये २५ फ़ीसदी से ज्यादा नहीं हैं। बाकी लोकतान्त्रिक प्रगतिशील लोग आधुनिक लोकतंत्र कि मांग कर रहे हैं और आज चुनाव हो जाए तो जिया और मुल्ला हार जाएंगे । मगर नशे को एक के बाद एक ‘किक’ चाहिए,वरना नशे का चढ़ाव उतर जाता है।इस्लाम के अफ़ीमचियों ने अदालत में मुकदमा दायर किया है कि जनरल जिया की दाढ़ी नहीं है,इसलिए वे इस्लामी हुकूमत के प्रेजिडेंट नहीं रह सकते। इसी तरह सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश भी उस पद पर नहीं रह सकते ,क्योंकि उनके भी दाढ़ी नहीं है।इस्लाम में मुसलमान को दाढ़ी रखना जरूरी है ऐसा लिखा है।यह मजहब के नशे का एक और ‘किक’ है।पैगम्बर मुहम्मद के ज़माने में ब्लेड नहीं बनते थे। उस्तरे थोड़े से बनते हों,मगर भोथरे होंगे।तलवार बनाने लायक लोहा जरूर था उस वक्त ।तो लोग दाढ़ी रखते थे।प्राचीन ग्रीक भी दाढ़ी रखते थे। भारत के प्राचीन ऋषियों कि दाढ़ी उनकी ‘यूनिफार्म’ नहीं थी। यह धर्म का मामला नहीं है।
मगर अब बिजली के रेजर से जिया दाढ़ी बनाते हैं,लोशन लगाते हैं,इत्र लगाते हैं।उन्हें दाढ़ी बढ़ानी पड़ेगी ।आगे इस्लाम के नशे वाले कहेंगे–अब खजूर खाओ और भेड़ का दूध पियो।कार छोडो ऊँट पर बैठो । नशे में एक के बाद ‘किक’ जरूरी है। इस्लाम कि अफीम के नशे में ऐसा हुआ कि जहाँ जमीन खाली दिखी,वहीँ मस्जिद बना ली।ऐसी हजारों मस्जिदें बन गयी पाकिस्तान में ।ये लोगों कि प्राइवेट जमीनों पर बनी हैं या सरकारी जमीन पर |अब जमीन और ‘प्रॉपर्टी’ मजहब से बड़ी होती है।अकबर इलाहाबादी ने कहा है—
खूब कह गए हैं भाई घूरन
दुनिया रोटी है औ’ मजहब चूरन।
तो लोगों ने सबसे ऊंची इस्लामी अदालत ‘मजलिसे-शूरा’में दरख्वास्त की कि ये मस्जिदे हमारी जमीन पर बना ली गयी हैं। ‘मजलिसे-शूरा’ ने फैसला दिया कि ये जो मस्जिदें बनाई गयी हैं,कानूनन मस्जिदें नहीं हैं।ये गैर कानूनी इमारतें है। इन्हे गिरा दिया जाए । फैसला सही है! जिसे ‘बुनियादी इस्लाम’कहते हैं वह बहुत लोकतान्त्रिक है,मगर वह कुल ६० साल रहा। इसके बाद सामंतवाद आ गया। मस्जिद ,इबादतखाना तब,जब इस्लामी विधान के मुताबिक बने–जमीन का मालिक खुद मस्जिद बनवाए या दूसरा बनवाए ,या कई लोग मिलकर बनवाएं,बन जाने पर जमीन का मालिक एलान करे सार्वजनिक रूप से कि मैं इबादत के लिए यह मस्जिद मुसलामानों को देता हूँ।दुसरे के झोपड़े को तोड़कर पैसेवाले मुसलमानों ने मस्जिद बनाई है,तो पहले कभी खलीफा ने हुक्म दिया कि इस मस्जिद को गिराओ और इसकी जगह उस गरीब कि झोपड़ी बनाकर दो।
अब मज़ा यह है कि पाकिस्तान में इस हुक्म के खिलाफ आंदोलन हो रहा है।लोग मांग कर रहे हैं कि मस्जिदें न गिराई जाएँ,मगर सबसे ऊपर इस्लामी अदालत कहती है कि ये मस्जिदें है ही नहीं।ये गैरकानूनी इमारतें हैं।इनमे खुदा है ही नहीं। इन्हे गिराओ।
अब क्या होगा? क्या जिया कि सरकार इन गैरकानूनी मस्जिदों को तोड़ेगी? मेरा ख्याल है इन्हे जेल बना दे।किसी को कोई ऐतराज़ नहीं होगा।मुसलमान जनता भी खुश,खुदा भी खुश,अदालत भी खुश और जमीन का मालिक भी खुश। उसकी नदान कि हुई जमीन पर बेगुनाहों को बंद करने के लिए जेल बनी, तो उसका जन्नत में अभी से रिजर्वेशन हो जाएगा।मगर नमाज़ी आंदोलन कर ही रहे हैं।नशे में ‘किक’ पर ‘किक’ चाहिए । मगर मस्जिदें तोड़ी गयी तो?
शायद ‘मजाज़’ का शेर है–
दिल खुश हुआ है मस्जिदें वीरान देखकर ,
मेरी तरह खुदा का भी खाना ख़राब है।