सौम्या स्वामीनाथन ने ईरान में होने वाली एशियन नेशन्स चेस चैंपियनशिप से नाम वापिस लेकर इस्लामी देशों द्वारा जबरन थोपी जाने वाली कठमुल्ली प्रथाओं का विरोध करते हुए ‘हिज़ाब मेरा ब्रांड नही है’ का संदेश दिया है।
खेल में भी मज़हबी चिह्नों और तौर-तरीकों का इस्तेमाल मज़हब विशेष के भीतर व्याप्त खोखलेपन की ही तस्दीक करता है।
इस्लामी देश के मज़हबी रहनुमा और उनकी कठपुतली सरकारें अक़्सर ऐसे कानूनों का जानबूझकर निर्माण करती है जो उनकी धार्मिक मान्यताओं को पाले-पोसें।
हिज़ाब पहनकर शतरंज खेलने से न जाने ईरानियों की कौन सी मज़हबी तुष्टि होगी या फ़िर उनके सूखे रेत के मैदान दस्ते-ए-क़ाबिर पे अल्लाह तआला रहमत की बरसात कर देंगे।
कहीं ईरानी ये तो नहीं सोचते कि हिज़ाब पहनकर औरतों को खेलता हुआ देख राजा का ध्यान नहीं भंग होगा, हाथी भी नही बौरायेगा और घोड़ा भी शतरंज फांदने के बजाय ढाई घर ही चलेगा।
ईरान में सार्वजनिक जगहों पे महिलाओं के हिज़ाब पहनकर निकलने वाला तालिबानी कानून लगभग साढ़े तीन दशक पूर्व ही अस्तित्व में आया है।
अब तो ईरान की महिलाएं स्वयं ही विभिन्न गुरिल्ला आंदोलनों में इस हिज़ाब को झंडा बनाकर अपना विरोध दर्ज करा रही है। ड्यौढ़ी पे कितना भी पर्दा टांग दो, गर भीतर वाला अपने प्रदर्शन को आतुर है तो वो परदे में नही टिकेगा।
पश्चिमी देश अक्सर भारत को धार्मिक-सांस्कृतिक सहिष्णुता का पाठ पढ़ाते दिखते है। और तो और धार्मिक स्वतंत्रता को लेकर की जाने वाली अपनी रैंकिंग्स में भारत को निचले से निचले पायदान पे रखते है।
हालांकि उनके अपने देश मे ही अक़्सर बंदूकधारी ‘धार्मिक बहुलतावाद’ और ‘मज़हबी आज़ादी’ का कत्लेआम कर देते है।
उन पश्चिमी देशों को तेल के अकूत भंडार वाले इन देशों की स्त्री विरोधी और स्त्री ग़ुलामी वाले ऐसे क़ानून नही दिखते। जिस सऊदी अरब में कार अविष्कार के एक सदी के बाद औरतों को हाथ मे कार की स्टीयरिंग थामने का मौका मिलता है, उसी सऊदी अरब के साथ अमेरिका गलबहियां करता है।
मग़र खुली आज़ादी के साथ अपना निर्णय सुनाने वाली महिलाओं के देश भारत मे उसे धार्मिक कट्टरता और एक खास मज़हब को सताने की बू आती है।
‘सौम्या स्वामीनाथन’ का अपने कैरियर को दांव पे लगाते हुए ऐसा निर्णय लेना उनकी हिम्मत की बानगी है।
पश्चिमी सोच वाले हॉलीवुडिया सिनेमा द्वारा दिखाया गया ‘स्लमडॉग मिलेनियर’ भारत का डीएनए नही है।
भारत का डीएनए तो ‘सौम्या स्वामीनाथन’ है।