भारत के 13वें राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी देश का सबसे चर्चित चेहरा थे। उनके जीवन का लंबा वक्त राजनीति में ही गुजरा। लेकिन क्या आप जानते हैं कि प्रणब दा राजनीति में आने से पहले एक क्लर्क थे। जीहां! ये सच है। उन्होंने देश के सर्वोच्च पद पर पहुंचने के लिए न सिर्फ कड़ी मेहनत की बल्कि अपनी प्रतिभा का लोहा भी मनवाया। विरोधी भी उनको पूरा सम्मान देते थे। प्रणब का जन्म बंगाल प्रेसीडेंसी के मिराती गांव में एक बंगाली परिवार में हुआ था। वर्तमान में ये पश्चिम बंगाल के बीरभूम जिले के अंतर्गत आता है। उनके पिता ने कमद किंकर मुखर्जी देश की आजादी की लड़ाई में बढ़चढ़कर हिस्सा लिया था। इसके अलावा 1952-1964 तक वो पश्चिम बंगाल विधान परिषद में कांग्रेस के सदस्य भी थे। साथ ही वे एआईसीसी के भी सदस्य थे। इस लिहाज से प्रणब दो एक राजनीतिक परिवार से भी ताल्लुक रखते थे।
प्रणब दा ने बीरभूम के सूरी विद्यासागर कॉलेज से पढ़ाई की थी। कलकत्ता यूनिवर्सिटी से उन्होंने राजनीति विज्ञान में एमए की डिग्री हासिल की और फिर बाद में इतिहास की डिग्री भी हासिल की। इसके बाद उन्होंने कानून की पढ़ाई के लिए यूनिवर्सिटी में एडमिशन लिया था। इतना सब कुछ करने के बाद उनकी नौकरी बतौर अपर डिवीजनल क्लर्क ऑफिस ऑफ डिप्टी अकांउंटेंट जनरल (पोस्ट एंड टेलिग्राफ) में लग गई थी। इसके बाद प्रणब दा ने जिस कॉलेज से इतिहास और राजनीति विज्ञान में एमए की डिग्री हासिल की थी वहीं पर उनका चयन बतौर सहायक प्रोफेसर हुआ था। कुछ समय उन्होंने इस कॉलेज में अपनी सेवाएं दी। आपको बता दें कि प्रणब एक शिक्षक के अलावा एक पत्रकार भी थे। राजनीति में आने से पहले उन्होंने देशर डाक (Call of Motherland) के लिए पत्रकारिता की थी।
1969 में उन्होंने राजनीति की पहली सीढ़ी उस वक्त चढ़ी, जब मिदनापुर में हुए उप चुनाव उन्होंने एक निर्दलीय प्रत्याशी वीके कृष्ण मेनन के लिए चुनाव प्रचार किया। इस चुनाव में मेनन को जीत हासिल हुई थी। इस जीत का डंका दिल्ली तक सुनाई दे रहा था। यही वो वक्त था जब इंदिरा गांधी की नजर प्रणब दा पर पड़ी थी। उन्होंने प्रणब मुखर्जी की प्रतिभा को पहचाना और अपनी पार्टी में आने का न्यौता दे डाला। प्रणब भी इसको ठुकरा नहीं पाए। कांग्रेस की तरफ से उन्हें पहली बार 1969 में राज्यसभा सदस्य बनाया गया। इसके बाद वे 1975, 1981, 1993 और 1999 में भी राज्यसभा के लिए चुने गए थे। इसके बाद प्रणब दा ने फिर कभी पलटकर पीछे नहीं देखा और सफलता की सीढि़यां एक के बाद एक चढ़ते चले गए।
वर्ष 1973 में इंदिरा गांधी ने उनकी प्रतिभा को जानते हुए उन्हें अपनी केबिनेट में जगह दी और उन्हें इंड्रस्ट्रियल डेवलेपमेंट मिनिस्टरी में डिप्टी मिनिस्टर बनाया गया। लेकिन 1975-77 के बीच इंदिरा गांधी द्वारा लगाई गई इमरजेंसी को लेकर उनकी भी आलोचना हुई। वो इस दौरान भी काफी सक्रिय नेताओं में से एक थे। इमरजेंसी की बदौलत कांग्रेस को 1977 के चुनाव करारी हार मिली थी और जनता पार्टी की सरकार केंद्र में बनी थी। 1979 में प्रणब राज्य सभा में कांग्रेस के उपनेता रहे और 1980 में उन्हें सदन का नेता बनाया गया। प्रणब के राजनीतिक कद का अंदाजा इस बात से भी लिया जा सकता है कि पीएम की गैर मौजूदगी में वही केबिनेट की बैठक लिया करते थे।
इंदिरा गांधी की हत्या के बाद जब राजीव गांधी को पीएम बनाया गया तो प्रणब दा को उनकी केबिनेट में जगह नहीं मिल सकी। इससे नाराज होकर प्रणब ने कांग्रेस से अलग होकर एक नई पार्टी बना ली। लेकिन कांग्रेस से अलग होकर वो ज्यादा कमाल नहीं दिखा सके। इसी वजह से 1989 में उन्होंने अपनी पार्टी का विलय कांग्रेस में कर दिया था।