कूड़ा बीनने वालों को कूड़ा बिनता देख लोगबाग ऐसे नाक सिकोड़ते है मानो कूड़ा बीनने वाले इंसान नही बल्कि कूड़े का ढेर हो। उनके बग़ल से गुजरने पे लोगबाग ऐसा बच के निकलते है मानो उनके स्पर्श करते ही इनका शरीर किसी क्षतिग्रस्त इमारत के मानिंद भरभरा के गिर जाएगा। ऐसे ही अनुभवों से दिन-प्रतिदिन दो-चार होती थी महाराष्ट्र की माया खोडवे।
जिस समाज का कचरा बीन के उसे स्वच्छ बनाने का पुनीत कर्म माया खोडवे जैसी कूड़ा बीनने वाली महिलाएं करती है, उनके प्रति उसी समाज का ऐसा घिनौना लोक व्यवहार उन्हें बहुत अखरता था। माया खोडवे कहती है कि उन्होंने तालीम नही हासिल की, इस वजह से उन्हें ऐसा काम करना पड़ रहा है।
लोगों के द्वारा किये जा रहा ऐसा लोकव्यवहार उनके मानस को झकझोरता था और इस झुंझलाहट ने उन्हें अपने समाज के लिए कुछ करने की प्रेरणा दीं। औपचारिक क़िस्म की विद्यालयी शिक्षा से दूर रहने वाली एक महिला ने अपने हाथ मे कैमरा थाम लिया और उस कैमरे से अपने आसपास की अवसंरचनात्मक समस्याओं की वीडियो बनाने लगी।
सबसे पहला वीडियो उन्होंने अपने आस पड़ोस की गंदी-बजबजायी नाली का बनाया। खुली हुई गंदी नाली का वीडियो बनाता देख आस पड़ोस के यथास्थितिवादी और उपहासी लोगों द्वारा उनकी हँसी भी उड़ाई गयी मग़र लोगों की इस हँसी का जवाब तब मिला जब नगर पालिका के अफसरों ने माया के इस वीडियो को देखने के बाद उस नाली को पक्का करवा दिया।
कूड़ा बीनने वाली माया कोडवे अब एक सिटिज़न जर्नलिस्ट बन गयी थीं। इतना ही नही माया कोडवे अब वीडियो को बाकायदा एडिट करके अफसरों के पास पहुंचाती थी। चूंकि बिना एडिट किया वीडियो समस्या की गहराई को उस हद तक बयां नही कर पाता था, जिसे देखते मान ही सरकारी बाबुओं की संवेदना हिल जाएं और वो तुरन्त उस समस्या के समाधान में जुट जाएं।
अब तो माया कोडवे अपने कैमरे से क्षेत्र की सभी निर्माणगत समस्याओं को शूट कर उन्हें लैपटॉप पे एडिट कर उसकी सूचना संबंधित अफ़सर को देती है ऑयर अफ़सर भी उनके इस प्रयास पर तुरंत कारवाई को अंजाम देते है। तकनीक कैसे मानव मात्र और मानवता की दिशा में काम कर सकती है, माया कोडवे की ये कहानी हमें सिखाती है।