भारत में विद्वान, पढ़े-लिखे, बुद्धिजीवी और प्रगतिशील होने का तमगा कुछ खास तरह के लोगों को प्राप्त है, वे अपनी सुविधाओं से परिस्थितियों का मूल्यांकन करते हैं। छोटी सी घटना पर संवेदनशील होकर इनकी मोमबत्ती यात्रा आयोजित हो जाती है, हृदय इतना द्रवित हो जाता है कि अपनी प्रतिभा से प्राप्त अवार्ड को यह वापस कर देते हैं। गत कुछ वर्षों में इनके संसाधनों के स्रोत बंद होने पर इनकी पीड़ा एजेंडे के रूप में जब-तब जाहिर होती रहती है। जिस पार्टी पर हिंदू मुसलमान करने का आरोप लगाते हैं उसका तब जन्म ही नहीं हुआ था जब दो बड़े नेताओं (इधर वाले भी और उधर वाले भी) ने अपनी कुर्सी के लिए कैसे नरसंहार के हालात को जन्म दिया, इतिहास गवाह है। ये विद्वान तब भी चुप रहे और 84 में भी चुप रह जब खुलेआम सिखों का नरसंहार हुआ। 90 में तो अपने ही देश में चार लाख कश्मीरी शरणार्थी हो गये, कौन सा अत्याचार उनके साथ नहीं हुआ। ये भी लिंचिंग नहीं थी क्योकि लिंचिंग का आधार धर्म से तय होता है। बताइये धर्म की राजनीति कौन करता है?
इन विद्वानों के पूरे कुनबे ने जिस तरह जमातियों पर चुप्पी साधी, चीन पर मौन रहे वे उसी तरह महाराष्ट्र के पालघर में तीन संतों की भीड़ द्वारा बर्बर हत्या पर चुप हैं। सामना अखबार में फिर युवराज की लॉन्चिंग हो रही है उन्हैं भविष्य के नेता रूप में प्रचारित किया जा रहा है। ऐसे में पालघर में तीनों मृतकों के धर्म और कपड़ों के रंग के साथ न्याय की उम्मीद बेमानी है। महंत सुशील गिरी एवं कल्पवृक्ष गिरी सहित तीन साधु पुलिस की मौजूदगी में वह भी लॉक डाउन में भीड़ द्वारा कत्ल कर दिये गये। पूज्य बाला साहेब के बेटे की सरकार दुविधा में है शांति व्यवस्था के लिए लिंचिंग पर कार्यवाही करें या सरकार बचाने के लिए पार्टनर नेता की लॉन्चिंग पर फोकस करें। लिंचिंग वाले विद्वान मौन है।
यह लेखक के निजी विचार हैं।