नज़रिया

लॉकडाउन के बाद नहीं लौटे अगर ये मजदूर तो बैठ जाएंगे शहर

महानगरों में खड़ी तमाम बड़ी इमारतों में इनका पसीना लगा है। यही हैं वो जिन्होंने महानगर में मेट्रो के सपने को साकार किया। ये मजदूर पिछले दिनों बड़ी संख्या में लौटते दिखे अपने गांव-घर की ओर। झुंड के झुंड अपनी गठरियां, पोटलियां और कनस्तर उठाए लोग, बच्चों को गोद में लिए, कंधे पर बिठाए पैदल चलते स्त्री-पुरुष। विभाजन के बाद आजाद देश के लिए यह बिल्कुल नई तस्वीर है।

22 मार्च का जनता कर्फ्यू ट्रेलर था। कोरोना वायरस के चलते उपजी हेल्थ इमर्जेंसी के मद्देनजर 24 मार्च से देश में 21 दिन के लिए संपूर्ण लॉकडाउन कर दिया गया। साथ ही यह आश्वाटसन भी दिया गया कि आवश्यक वस्तुओं की कोई कमी नहीं होने दी जाएगी। पर लगता है हर व्यक्ति को बचाने और घरों के अंदर तमाम आवश्यक सुविधाएं सुनिश्चित करने का संकल्प नीचे तक पहुंचाने में कहीं कोई चूक रह गई। रोज कमाने और रोज खाने वाले लाखों लोगों तक या तो यह आश्वासन पहुंचा नहीं या पहुंचने के बाद भी उन्हें आश्वस्त नहीं कर सका। नतीजा यह कि दो दिन होते-होते उनकी हिम्मत टूट गई। उन्हें लगा लॉकडाउन की इस अवधि में वे घरों के अंदर बेमौत मर जाएंगे। तब तक बसों ट्रेनों की आवाजाही रोकी जा चुकी थी। सो, हजारों की संख्या में ये लोग पैदल ही सैकड़ों किलोमीटर की दूरी नापने का इरादा लेकर निकल पड़े कि मरें भी तो कम से कम अपनों के बीच मरें, उन लोगों के बीच जिन्हें हमारे जीने-मरने से फर्क पड़ता है।

एक अनुमान के अनुसार दिल्ली में स्किल्ड, सेमी स्किल्ड और अनस्किल्ड मिलाकर 55 लाख के आसपास मजदूर रहते हैं। इनमें से बहुत गुटखा, खैनी या ऐसी ही अन्य चीजें बनाने वाली छोटी-मोटी फैक्ट्रियों में काम करते हैं। इनके परिवार की महिलाएं और प्रायः बच्चे भी किसी न किसी तरह के काम में लगे रहते हैं। तभी इनका परिवार चल पाता है। नोएडा की एक गुटखा फैक्ट्री में काम करने वाला इटावा जिले से आया ऐसा ही एक मजदूर मनीष कुमार जो मजदूरी करते हुए सीनियर हो गया और अब वहां की लिफ्ट ऑपरेट करने लगा है, गर्व से बताता है कि थोड़े ज्यादा पैसे कमाने के लिए ‘मैं तो डबल ड्यूटी करता हूं।’ डबल ड्यूटी यानी 12 नहीं, 24 घंटे ड्यूटी, वह भी सातों दि‍न। मात्र दस से पंद्रह हजार रुपये महीने पर। इस छोटी आय में भी महानगर में रहते हुए अपने गांव में माता-पिता के पास पैसा भेजने की जिम्मेदारी भी निभाता है। खुश है कि मोबाइल से कॉल और विडियो कॉल कर लेता है, पर चाय की तलब लगती है तो गुटखा खा लेता है।

जाहिर है, मनीष कुमार के इस तपस्या भरे जीवन के केंद्र में गांव का वह परिवार-समाज है जिसे छोड़कर वह यहां रहने को मजबूर है। ऐसे में स्वाभाविक है कि जीवन संकट में घिरने पर वह गांव पहुंचने को तड़प उठेगा। यही वह तड़प थी जो सडकों पर सपरिवार पैदल चल रहे उस हुजूम को संचालित कर रही थी।

हालांकि इस पलायन के अपने खतरे थे। लेकिन इन लोगों ने खतरे की परवाह नहीं की। दूसरी तरफ शहर के मिडल क्लास ने इन सब को गैर जिम्मेदाराना हरकत के रूप में देखा। उन्हें समझ में नहीं आया कि मजदूरों ने अपने स्वास्थ्य को खतरे में क्यों डाला। इनकी मजबूरी को चुटकियों में बेवकूफी करार देने वाले लोगों को जरा भी याद नहीं रहा कि जिन आरामदेह घरों में बैठकर वे कोरोना के खिलाफ लड़ाई को मजबूती दे रहे हैं उन घरों को आकार देने वाले, उन्हें खड़ा करने वाले यही लोग हैं।

बहरहाल, सरकार ने जरूर अपनी भूल को सुधारने की कोशिश की। हर संभव तरीके से उन्हें यह बताया गया, समझाया गया कि सरकार को उनकी चिंता है और उनके रहने, खाने, ठहरने से जुड़ी सारी व्यवस्था करने को वह कृतसंकल्प है। जो घर से निकल पड़े थे और कहीं रास्ते में थे, उन्हें भी जहां वे हैं वहीं आसपास ठहराने के इंतजाम किए जाने लगे। अब वे इंतजाम कितने पर्याप्त या अपर्याप्त हैं उसका पता कुछ समय बाद चलेगा, लेकिन यह जरूर राहत की बात है कि सरकार ने इस दिशा में प्रयास शुरू कर दिए हैं।


द फ्रीडम स्टॉफ
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