भारतीय संविधान में वर्णित मौलिक अधिकारों में से एक अनुच्छेद 19(1)(क) के अनुसार भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार एवं अनुच्छेद 19(1)(ख) के अनुसार शांतिपूर्ण तथा हथियाररहित सम्मेलन का अधिकार भारत के सभी नागरिकों को प्राप्त है। लोकतंत्र में विरोध करना स्वाभाविक है और सत्ता का विरोध होना भी चाहिए जिससे सत्ता निरंकुश न होने पाए लेकिन क्या हम विरोध करने का सही तरीका भूल चुके है या हम इस बात से अनजान है कि विरोध कैसे किया जाए?
वर्तमान परिदृश्य में भारत में जिस प्रकार का विरोध हो रहा है वह सही मायने में विरोध नहीं बल्कि ‘हिंसात्मक विरोध’ है। विरोध करने के नाम पर संविधान और अनुच्छेद 19 की दुहाई देने का प्रचलन हो गया है लेकिन क्या वे यह भूल गए हैं कि संविधान अनुच्छेद 19 तो प्रदान करता है परंतु कुछ ‘युक्तियुक्त निर्बंधन’ के साथ। कहने का तात्पर्य यह है कि अगर आप संविधान की दुहाई देते है तो सर्वप्रथम संविधान के प्रत्येक पहलुओं को समझने का प्रयास करिए। संविधान यह कभी नही कहता कि आप विरोध के नाम पर हिंसा करिए। पिछले कुछ दिनों में कई जगह विरोध के नाम पर हिंसा देखने को मिला है चाहे वह लखनऊ हो या फिर जामिया मिलिया यूनिवर्सिटी। सार्वजनिक संपत्ति को क्षति पहुँचाना, नागरिकों के मौलिक अधिकार बाधित करना, आगजनी करना, देश तोड़ने की बात करना, प्रदर्शन में हथियार लहराना क्या यही विरोध करने का तरीका है?
दिल्ली के शाहीन बाग से खुलेआम मंच से असम और पूर्वोत्तर भारत को भारत से अलग काटने की बात, कश्मीर को आज़ादी देने के नारे, भारत तेरे टुकड़े होंगे, हिंदुत्व की कब्र खुदेगी जैसे नारे क्या यही विरोध प्रदर्शन करने का तरीका है? संविधान तो इसकी इजाजत कभी नहीं देता। विरोध करने वाले इतने असहिष्णु हो गए है कि वे भारतीय संविधान के प्रस्तावना में निहित ‘पंथनिरपेक्ष’ को चुनौती देने लग गए है। यहां तक कि प्रेस और संवैधानिक पदों पर आसीन लोगों के प्रति भी ये हिंसात्मक रवैया अपनाते है। एक ओर शाहीन बाग गए कुछ पत्रकारों के साथ सिर्फ इसलिए हाथापाई होती है कि वे हिंसात्मक विरोध को गलत बताते हैं और ऐसा ही पिछले दिनों जेएनयू में भी देखा गया था।
दूसरी ओर मंचों से देश के प्रधानमंत्री और गृहमंत्री के विरूद्ध अभद्र टिप्पणीयां, राज्यों के राज्यपाल से अभद्रतापूर्ण व्यवहार भी विरोध का एक ‘तुच्छ और असंवैधानिक’ तरीका है। ‘हिंसात्मक विरोध’ के कारण संवैधानिक पद पर आसीन केरल के राज्यपाल को विधानसभा में मार्शलों के सुरक्षा घेरे में आना पड़ा जोकि अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है। एक तरफ सरकार देश में देशहित के लिएशांति समझौते स्थापित करती है तो वहीं दूसरी तरफ विरोध के नाम पर देश तोड़ने की बात कही जा रही है। कुछ दिन पूर्व ही सरकार ने नागा समूहों के साथ शांति समझौते किये और अभी हाल ही के दिनों में सरकार ने असम के बोडो समूह के साथ शांति समझौते स्थापित किये। इन शांति समझौतों से सरकार देश और मुख्यतः पूर्वोत्तर भारत मे शांति स्थापित करना चाहती है क्योंकि पूर्वोत्तर भारत की सांस्कृतिक और नैसर्गिक विरासत का अंग है।दिल्ली के शाहीन बाग से असम को भारत से काटने की बात कहना देशद्रोह के बराबर है और यह तरीका विरोध करने का एकदम निंदनीय है। एक तरफ तो हम ‘व्योममित्र’ अंतरिक्ष में भेज कर दुनिया को अपनी शक्ति दिखाना चाहते हैं तो वही दूसरी तरफ देश की संप्रभुता को आंतरिक चुनौतियां दी जा रही हैं, ये कैसा विरोध है ?
‘अभिव्यक्ति की आज़ादी’ के नाम पर भारत का संविधान इस तरह के विरोध प्रदर्शन करने की इजाजत कभी नहीं देता है। हम अनुच्छेद 19(1) के उपबंधों को तो पढ़ते है परंतु अनुच्छेद 19(2) से अनुच्छेद 19(6) को पढ़ना भूल जाते है जिसमें अनुच्छेद 19(1) के उपबंधों के युक्तियुक्त निर्बंधन बताए गए हैं। भारतीय संविधान ‘हम भारत के लोग…’ से शुरू होता है अतः अन्य नागरिकों के हितों को देखते हुए ही विरोध प्रदर्शन किए जाए।
सूर्य प्रकाश अग्रहरि
(लेखक युवा पत्रकार हैं और द फ्रीडम न्यूज़ पर प्रकाशित इस लेख में लेखक के निजी विचार हैं।)