नज़रिया

बार-बार अखंडता को चुनौती क्यों?- सूर्य प्रकाश

भारत के संविधान में एकता, अखंडता की बात कही गयी है। भारत एक लोकतांत्रिक गणराज्य है, जहाँ पर संविधान ही सर्वोच्च है। 1950 के पूर्व के रोड़ो को पार करते हुए भारतीय संविधान निर्माताओं ने धर्मनिरपेक्षता, समाजवाद, न्याय, स्वतंत्रता, बन्धुत्व, एकता, अखंडता जैसे सिद्धान्तों के साथ एक सर्वोच्च संविधान के जरिये मजबूत लोकतंत्र और संघवाद स्थापित किया। परंतु आज की वर्तमान स्थितियों को देखते हुए यह कहना गलत नहीं होगा कि अखंडता और संघवाद की नींव खिसकती जा रही है।


अभी अगस्त के ही दिनों में जम्मू-कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा देने वाले अनुच्छेद 370 के प्रावधानों को निरस्त कर ‘एक देश एक संविधान’ के संकल्प को उद्धत किया गया। पूर्व से ही चर्चा का विषय रहे विशेष दर्जा प्राप्त राज्यों में से एक जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 के प्रावधानों को खत्म करके दो केंद्र शासित प्रदेशों में बांट दिया गया- जम्मू-कश्मीर और लद्दाख। हालांकि सरकार ने यह अवश्य कहा है कि स्थिति सही होने पर आने वाले समय में जम्मू-कश्मीर को पुनः राज्य का दर्जा दे दिया जाएगा। पूर्वोत्तर के राज्यों को भी विशेष राज्य का दर्जा दिया गया है परंतु इनकी सीमाएं पूर्व के विशेष दर्जा प्राप्त जम्मू-कश्मीर से कुछ कम हैं।


एक तरफ तो हम ‘एक देश, एक झंडा, एक संविधान’ की बात तो करते हैं परन्तु असल मायने में हम इसमें विफल साबित हो रहे हैं। अनुच्छेद 371(क) के तहत नागालैंड राज्य के संबंध में विशेष उपबंधो और अनुच्छेद 371 (ग) में मणिपुर राज्य के संबंध में विशेष उपबंधों का प्रावधान किया गया है, ऐसे ही पूर्वोत्तर के अन्य राज्य भी है जिनको विशेष प्रावधान दिए गए है। इन्हें हम विशेष राज्यों के साथ अन्य राज्यों के मध्य विषमता कह सकते हैं। अभी हाल के ही दिनों में 16 अक्टूबर को मणिपुर के दो अम्ब्रेला उग्रवादी संघठनों- कॉर्डिनेशन कमेटी और एएसयूके और त्रिपुरा के एनएलएफटी ने 15 अक्टूबर 1949 को हुए दोनों राज्यों का भारत में विलय के विरुद्ध प्रदर्शन किया। इन संगठनों ने कहा कि दोनों राज्यों का विलय भारत मे ‘बलपूर्वक’ किया गया था और इस घटना को मणिपुर और त्रिपुरा के इतिहास का काला अध्याय बताते है। इसी के बाद कुछ दिन बाद ही नागालैंड ने अपने अलग झंडे और संविधान की मांग की। नागालैंड के क्षेत्रीय संगठनों जिनमें से एक एनएससीएन-आइएम ने अलग झंडे और संविधान की मांग की जिसको भारत सरकार ने बिना विलंब के खारिज कर दिया।

नागा संगठनों से वार्ताकार और नागालैंड के राज्यपाल आरएन रवि ने कहा कि बंदूकों के साये में उग्रवादी समूह के साथ अंतहीन वार्ता स्वीकार नही है। केंद्र सरकार दशकों लंबी शांति वार्ता की प्रक्रिया को जल्द से जल्द निष्कर्ष पर पहुँचाएगी। इसके आगे उन्होंने कहा कि एनएससीएन-आइएम ने समझौते के प्रारूप को ‘शरारतपूर्ण तरीके’ से लंबा खींचा है और इसमें काल्पनिक विषय डाल रहा है। समझौते के प्रारूप पर तीन अगस्त 2015 को एनएससीएन-आइएम के महासचिव थुइंगलेंग मुइवा और सरकार के वार्ताकार ने भारत सरकार के प्रधानमंत्री मोदी की उपस्थिति में हस्ताक्षर किए थे। समझौता प्रारूप 18 साल तक 80 दौर की वार्ता के बाद तैयार हुआ। इसमे पहले सफलता 1997 में मिली थी, जब नागालैंड में दशकों तक उग्रवाद के बाद संघर्षविराम समझौता हुआ था।


समय-समय पर उठते इस तरह की मांग को भारत की एकता और अखंडता के विरुद्ध देखा जा सकता है। इसका कारण कही न कही एक कमजोर संघवाद भी हो सकता है। भारत सरकार पर यह प्रश्रचिन्ह लगता है कि हम पूर्वोत्तर के राज्यों से संघवाद स्थापित करने में क्यों विफल साबित हो रहे हैं ?

सूर्य प्रकाश अग्रहरि
रिपोर्टर, द फ़्रीडम न्यूज़

द फ्रीडम स्टॉफ
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