यूपी ब्यूरो, द फ्रीडम न्यूज: यूपी में शीरा नीति विरोधाभासों में घिरी नजर आती है। शीरा बनाता कोई और है, नियंत्रण किसी और विभाग का है। किसानों का इससे सीधा कोई संबंध नहीं, लेकिन बकाया गन्ना मूल्य का भुगतान न होने से सबसे अधिक असर उन्हीं पर है। बीमार होते चीनी उद्योग को भी इससे संजीवनी मिलने की उम्मीद नहीं क्योंकि शराब निर्माताओं के केंद्र में रखकर ही नीतियां तैयार की गईं। शीरा आरक्षण चीनी मिलों के लिए कोढ़ अलग से बना हुआ है, क्योंकि इससे उन्हें लगातार नुकसान ही उठाना पड़ा है।
मदिरा निर्माताओं के लिए सरकार ने शीरे का आरक्षण कोटा 12 से बढ़ाकर 16.50 प्रतिशत किया है। यानि मिल मालिकों को कुल उत्पादित शीरे का 16.50 प्रतिशत हिस्सा बाजार से बेहद कम दर पर बेचना अनिवार्य है। जो शीरा बाजार में 450 से 500 रुपये प्रति क्विंटल तक बिकता है, उसे देशी शराब बनाने के लिए मात्र 75 से 80 रुपये प्रति क्विंटल दर से बेचना पड़ता है। मिल संचालकों के अनुसार इससे मिलों को 350 से 400 करोड़ रुपये की हानि होती है, जिसमें से लगभग सौ करोड़ रुपये का नुकसान सहकारी चीनी मिलों के हिस्से आता है। अधिकतर सहकारी मिलों की दयनीय दशा किसी से छिपी नहीं है। इनको चलाए रखने के लिए सरकार को प्रतिवर्ष मदद करनी पड़ती है। ऐसे में शीरा आरक्षण से होने वाला सौ करोड़ रुपये का नुकसान सहकारी क्षेत्र की मिलों के लिए कंगाली में आटा गीला होने जैसा है।
गन्ना सहकारी समिति अध्यक्ष महासंघ के महामंत्री अरविंद कुमार सिंह कहते है कि नया पेराई सत्र 30 अक्टूबर से आरंभ करने का दावा किया जा रहा है, परंतु अभी किसानों के पिछले सत्र के 4611 करोड़ रुपये मिलों पर अटके हैं। सरकार चाहे तो देशी शराब निर्माताओं को अलग से मदद दे, परंतु मिलों की आत्मनिर्भरता बनाए रखी जानी चाहिए। वह कहते हैं कि शराब निर्माताओं को राहत देने से अधिक जरूरी चीनी उद्योग को बचाना है। यह 32 लाख गन्ना किसान परिवारों के हितों से जुड़ा मसला है। चीनी मिलें घाटे में रहेंगी तो गन्ना मूल्य भुगतान की समस्या प्रतिवर्ष बनी ही रहेगी।