नज़रिया

डलमऊ के लिए निराला और निराला के लिए डलमऊ वैसे ही है जैसे जिस्म और रूह

भारतीय साहित्य के हज़ारों साल के इतिहास में बस कुछ ही लोग हैं जो अपने विद्रोही स्वर, अनुभूतियों की अतल गहराईयों और सोच की असीम ऊंचाईयों के साथ भीड़ से अलग दिखते हैं। निर्विवाद रूप से सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का नाम उनमें एक हैं।

बंगाल के महिषादल जनपद मेदिनीपुर में 21 फरवरी 1896 को बसंत पंचमी के दिन जन्मे पंडित सूर्यकांत त्रिपाठी निराला ने अपने जीवन के विषाद, विष, अंधेरे को जिस तरह से करुणा और प्रकाश में बदला, वह हिंदी साहित्य में अद्वितीय है।

डलमऊ के लिए निराला और निराला के लिए डलमऊ वैसे ही है जैसे जिस्म और रूह। वैसे तो डलमऊ थी निराला की ससुराल पर तमाम दुश्वारियों से टकराते हुए निराला ने अपनी ज़िन्दगी के बेशकीमती साल गुज़ारे। दशकों बीत गए पर आज भी निराला की लेखनी की सीली सीली खुशबू डलमऊ के कोने कोने में बसी हुई हैं। यहां के चप्पे-चप्पे पर उस बेचैनी और अधूरेपन का अहसास होता है जिसने निराला को महाप्राण बनाया।

अपने रंग-रूप और डील-डौल में वास्तव में किसी ग्रीक देवता की तरह नजर आने वाले निराला की लेखनी में डलमऊ के अनगिनत रंग दिखते हैं। चाहे वह डलमऊ का पक्का घाट हो, सड़क घाट हो, किले की बारादरी हो, टिकैतगंज हो, बड़ा मठ हो या उनके जिगरी यार कुल्ली भाट का वह घर जहां से उन्होंने उस दौर में जातिवाद और रूढ़िवाद के फन पर जो कुठाराघात किया था उसकी धमक आज भी सुनाई देती है। इसमें एक विद्रोह था। निराला मे विरूद्धों का सामंजस्य देखते हुए व्हीटमेन की ये पंक्तियां याद आती हैं-

‘क्या कहा, मैं अपना खंडन करता हूं
ठीक है तो, मैं अपना खंडन करता हूं
मैं विराट हूं- मैं समूहों को समोये हूं।’

 

लेखक

अंशुमान सुमन

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