thefreedomnews
नज़रिया

भारत में बदतर स्वास्थ्य सेवाओं से परेशान लोगों को बीमा कवर का झांसा – रवीश कुमार

भारत में मेडिकल शिक्षा कुछ स्थायी मिथकों से घिर गई है जिन्हें तोड़ना सबसे ज़रूरी है। ख़ानदानी और कुलीन परिवारों के कब्ज़े से इसे निकालने के लिए व्यापक सामाजिक समूह को भी मेडिकल शिक्षा के दायरे में लाना पड़ेगा। इन लोगों ने जानबूझ कर यह बात लोगों के दिमाग़ में बिठा दी है कि डॉक्टर होने के लिए दैवीय गुणों से लैस कुशाग्र होना बहुत ज़रूरी है। इसके बिना क़ाबिल डाक्टर नहीं हुआ जा सकता है। जबकि क़ाबिल डॉक्टर का होना इस बात पर निर्भर करता है कि आप में सेवा भाव है या नहीं। यही असली मेरिट है। डाक्टर का मेरिट इस बात में नहीं है कि वह मेडिकल शिक्षा में शिक्षा में कितने अंक लाता है। इसमें है कि वह उस पढ़ाई को व्यवहार में कितना उतार पाता है। हमारी मेडिकल शिक्षा में इन बातों को किनारे लगा दिया गया है। दूसरे बायोलोजिकल साइंस की तरह मेडिकल ज्ञान भी तथ्यात्मक है। FACTUAL है। यह लॉजिकल या अवधारणात्मक नहीं है। मतलब आपको जो करना है वह तथ्यों से साबित है न कि आप ईश्वरीय शक्ति से भांप कर उपचार कर देते हैं। ऐसा कुछ नहीं होता है। जहां तक मेडिकल शिक्षा हासिल करने का सवाल है, इसे कोई भी परिश्रम के ज़रिए हासिल कर सकता है बशर्ते उसे मेडिकल शिक्षा संस्थानों में आने का मौका मिले।”

यह पंक्ति मेरी नहीं, बल्कि दो डाक्टरों की है। एक का नाम है डॉ अनूप सराया जो एम्स के गैस्ट्रोएंटिरोलॉजी विभाग के अध्यक्ष हैं। सारा जीवन स्वास्थ्य की नीतियों और भारत के अस्पतालों में घूम घूम कर अध्ययन करने में लगा दिया। दूसरे का नाम है डॉ विकास बाजपेई जो जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के सेंटर फॉर सोशल मेडिसिन एंड कम्युनिटी हेल्थ में पढ़ाते हैं। डॉ विकास रेडिएशन ऑन्कोलॉजिस्ट हैं।

इनकी एक किताब आई है जिसका नाम है HEALTH BEYOND MEDICINE, SOME REFLECTIONS ON THE POLITICS AND SOCIOLOGY OF HEALTH IN INDIA, 995 रुपये की इस किताब को aakarbooks.com ने छापी है।

आज सुबह उठते ही इस किताब में प्रवेश कर गया। आज़ादी से लेकर आज तक भारत के लोक स्वास्थ्य की समझ नहीं होने के कारण ही मीडिया सरकारों के बीमा कवरेज को ही स्वास्थ्य समस्या का समाधान मान लेता है। जल्दी ही भारत सरकार स्वास्थ्य बीमा की नौटंकी करने वाली है। इसमें मोदी सरकार की आलोचना नहीं है, कोई दूसरी सरकार होती तो वह भी यही करती है।

अस्पताल सिर्फ डाक्टर से नहीं चलता है, बल्कि इसके लिए बड़ी संख्या में टेक्निशियन, फार्मासिस्ट, लैब सहायक, रेडियोलॉजिस्ट वगैरह की ज़रूरत होती है। भारत के शहरी और ग्रामीण अस्पतालों में इनकी भारी नहीं महामारी के स्तर पर कमी है। एम्स भोपाल में ही कई हज़ार नॉन फैकल्टी स्टाफ की कमी है। जब एम्स का यह हाल है तब आप बाकी संस्थानों के बारे में अंदाज़ा लगा सकते हैं।

डॉ अनूप सराया और डॉ विकास बाजपेई की यह किताब बताती है कि भारत में चाहे जिनती प्रकार की सरकारें रही हों, जितने दलों की सरकारें रही हों, पिछले बीस साल से स्वास्थ्य नीतियों के मामले में एक जैसी ही साबित हुई हैं। उसके पहले से की जा रही अनदेखी का नतीजा यह हुआ कि इन बीस सालों में स्वास्थ्य सेवाओं की समस्या भयावह हो गई। अस्पतालों की कुछ सुविधाओं जैसे नर्सिंग, सफाई, किचन वगैरह को निजी हाथों में देने का कोई लाभ नहीं हुआ। ऐसा कोई प्रमाण नहीं है कि गुणवत्ता में सुधार हो बल्कि आप कहीं भी इक्का दुक्का अस्पतालों को छोड़ यह गिरावट अपने कान से भी देख सकते हैं, अगर राजनीतिक भक्ति में आंखों से नहीं देखना चाहते हों तो।

भारत के अस्पतालों में साढ़े दस लाख बिस्तर हैं। इनमें से 8 लाख 33 हज़ार प्राइवेट अस्पतालों के हैं और 5 लाख 40 हज़ार सरकारी अस्पतालों के। प्राइवेट अस्पतालों के बिस्तरों का 70 फीसदी सिर्फ 20 शहरों में केंद्रित है। सरकारी अस्पतालों के बिस्तरों का 60 फीसदी सिर्फ 20 शहरों में है। सरकारी अस्पतालों में सारे बिस्तर काम भी नहीं करते हैं। इनका उपयोग नहीं होता है क्योंकि डॉक्टर और ज़रूरी स्टाफ नहीं है। आप इतने भर से समझ जाएंगे कि कस्बों और गांवों में स्वास्थ्य सुविधाओं का क्या हाल है और बीमा का कार्ड दे देने से क्या बदल जाएगा। बीमा एजेंट डॉक्टर नहीं होता है। यह बात पर्स में लिखकर रख लें। भारत में 1000 की आबादी पर 0.3 से 0.5 से ज्यादा डाक्टर कभी नहीं रहा। जब डाक्टर ही नहीं है तो बीमा क्या करेगा। बीमा ये करेगा कि आपको गुड फीलिंग देगा। मूर्ख बनाएगा।

अगर आप तुलना करना चाहें तो भारत 1000 की आबादी पर 0.9 बेड हैं। ज़ाम्बिया भारत से बेहतर है जहां 1000 की आबादी पर 2 बेड है और GABON नाम के मुल्क में 1000 की आबादी पर 6.3 बिस्तर हैं। क्यूबा भी भारत की तरह चुनौतियों से भरा रहा लेकिन उसने अपनी रक्षा बजट से समझौता किया और जन स्वास्थ्य को बेहतर बनाया है। इस किताब को पढ़ते हुए आप जन स्वास्थ्य के बारे में काफी कुछ पहली बार जानते हैं और आगे इस विषय को समझते रहने का आधार हासिल करते हैं।

उड़ीसा, छत्तीसगढ़, राजस्थान के ग्रामीण अस्पतालों में 90 फीसदी विशेषज्ञों की कमी है। उत्तराखंड में 85 फीसदी की कमी है। बिहार और झारखंड में 10,000 की आबादी पर 0.5 फिजिशियन हैं। तभ आप इन राज्यों में डाक्टर की क्लिनिक के बाहर उनसे ज्यादा चाय और खाने पीने की दुकानों में भीड़ देखते हैं। डॉक्टर अनूप सराया ने कुछ सरकारी अस्पतालों का अनुभव लिखा है। शाम चार बजे के बाद कोई नर्सिंग स्टाफ नहीं होता। एक या दो स्टाफ के भरोसे अस्पताल चलता है। जो नागरिक बाहर हिन्दू मुस्लिम में बिजी रहते हैं, वो अस्पताल में पहुंच कर डाक्टर को मारने लगते हैं। जबकि उन्हें इसका गुस्सा स्वास्थ्य के लिए नीति बनाने वाले सांसदों और विधायकों पर दबाव बनाकर निकालना चाहिए।

2011 की जनसंख्या के हिसाब से भारत की ग्रामीण आबादी 83 करोड़ से अधिक थी। इन 83 करोड़ लोगों के लिए मात्र 45,062 डाक्टर हैं। 2007 में भारत में इस आबादी के लिए 27,725 डाक्टर थे। 2007 में अमरीका की आबादी थी 30 करोड़ जबकि वहां भारत से 50,000 डाक्टर जाकर काम कर रहे थे। आज भी यही अनुपात है। भारत से ही सबसे अधिक डाक्टर अमरीका जाते हैं और वहां से तिरंगा लेकर इंडिया इंडिया करते हैं। हम मीडिया वाले उनकी कामयाबी को बढ़ चढ़ कर दिखाते हैं कि अमरीका में तीर मार लिया। तीर मारने की वजह वहां के सिस्टम की दी हुई सुविधाओं और व्यवस्था में भी रही होगी। 1989 से 2000 के बीच एम्स से 54 प्रतिशत मेडिकल ग्रेजुएट भारत से बाहर चले गए। जो एम्स बने हैं उसी का अता पता नहीं है। वहां सुविधाएं नहीं हैं मगर एम्स चूंकि उम्मीद जगाता है इसलिए नेता अब इस नाम से हर जगह अस्पताल का शिलान्यास कर देते हैं। पब्लिक पहले की तरह लदा फदा कर दिल्ली आती रहती है।

यही नहीं हर दल की सरकारों ने अपने स्वास्थ्य बजट का 50 फीसदी भी ग्रामीण स्वास्थ्य पर खर्च नहीं किया है। चाहे केंद्र की सरकार रही हो या राज्य की। जहां खर्च हुआ है वहां भी दूसरी सुविधाएं नदारद हैं और जनता को खास लाभ नहीं मिल रहा है। अब देखिए 2011 के आंकड़े के अनुसार बिहार के ग्रामीण सरकारी अस्पतालों में 1830 बेड हैं तो शहरों के सरकारी अस्पताल में 16,686 है्ं। भारत ने 1977 में ही अल्मा आटा घोषणापत्र के तहत लक्ष्य तय किया था कि सन 2000 तक सबको हेल्थ केयर देंगे। आज तक नहीं मिला। अब बीमा को हेल्थ केयर का विकल्प बनाया जा रहा है यह सिर्फ जनता को मूर्ख बनाकर ही संभव हो सकता है।

समस्या है कि प्राइवेट पब्लिक मिलाकर न तो डाक्टर हैं न पर्याप्त अस्पताल न विशेषज्ञ। लोगों का दबाव इतना है कि अस्पताल में घुसते ही मन्नतों का दौर शुरू हो जाता है। ज्योतिष और पीर मज़ार पर चढ़ावा जाने लगता है। डाक्टर और अस्पताल भी लूटने लगते हैं। हम कभी स्वास्थ्य सेवाओं को समग्र रूप से नहीं देखते। तुरंत अपवाद स्वरुप अच्छे अस्पतालों और डाक्टरों के सहारे इन सवालों को किनारे लगा देते हैं। इसलिए भारत की रैकिंग हेल्थ केयर के मामले में नीचे आ जाए तो हैरान न हों। इसमें अचरज की क्या बात। अचरज की बात ये है कि इसके बाद भी आप इन सवालों को महत्व नहीं देते हैं। न देंगे। बेहतर है आप बीमा कवर ले लें।

(रवीश कुमार की फेसबुक वॉल से)

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *