विशेष संवाददाता: उत्तर प्रदेश में धर्मनगरी डलमऊ की खास पहचान है। बस, धरोहरों को सहेजने में डलमऊ पिछड़ गया, नहीं तो पर्यटन में भी डलमऊ का खास मुकाम होता। धरोहरों का रखरखाव नहीं होने से गंगा की नगरी डलमऊ पर्यटन मानचित्र पर उस तरह नहीं उभर पाया जिसका वह हकदार है।
डलमऊ में विरासत की समृद्ध परम्परा रही है, लेकिन दुर्भाग्य से उनके संरक्षण के लिए उल्लेखनीय प्रयास नहीं किए गए। विरासत मामले में डलमऊ अन्य प्राचीन नगरों में कहीं आगे है, लेकिन इसे सहेजने में हुई चूक पर्यटन नक्शे पर भारी पड़ रही है। डलमऊ ऐतिहासिक नगही है, लेकिन उत्तर प्रदेश में इसके इतिहास से कोई परिचित नहीं।
किला बदहाली के आगोश में
गंगा तट पर 13वीं सदी से पूर्व राजा डल ने किले का निर्माण कराया गया था। इसकी ऊंचाई इतनी थी कि इसी पर खड़े होकर सिपाही निगहबानी करते थे। दूर से ही शत्रुओं को देखकर उनके मंसूबों पर पानी फेर दिया करते थे। बदलते समय के साथ-साथ अब यह किला बदहाली के आगोश में समाता गया। गंगा तट पर बना ऐतिहासिक किला प्रतिवर्ष बरसात के दौरान पानी से कट रहा है। यदि ऐतिहासिक धरोहर को बचाने के लिए शीघ्र कोई पहल न की गई, तो सम्पूर्ण किला धराशायी हो जाएगा। प्राचीन नगर डलमऊ की ऐतिहासिक धरोहरों के संरक्षण के लिए न तो जनप्रतिनिधि गम्भीर है और न ही पर्यटन मंत्रालय।
किसी ने कोई प्रयास नहीं किया
डलमऊ बड़ा मठ के महामंडलेश्वर स्वामी देवेन्द्रानंद गिरि ने बताया कि डलमऊ दालभ्य ऋषि की तपोस्थली के साथ मां गंगा के तट पर बसा प्राचीन नगर है। प्राचीन धरोहरे हैं। इनके संरक्षण के लिए कई बार जनप्रतिनिधियों व पर्यटन मंत्रालय से गुहार लगाई गई। लेकिन, किसी ने कोई प्रयास नहीं किया।
मुगलकालीन चमेली बाग भी खंडहर में तब्दील
डलमऊ में गुरुकुल आश्रम बड़ा मठ में संचालित होता है। इसमें सुदूर जनपदों से भी छात्र आकर संस्कृत भाषा व वेदों का ज्ञान लेते हैं। राजा डलदेव के किला को देखने के लिए प्रतिदिन सैकड़ों लोग आते हैं। यहां 12 से अधिक प्राचीन देवी देवताओं के भव्य मंदिर डलमऊ की भव्यता को प्रदर्शित कर रहे हैं। देखरेख के अभाव में ये देवालय जर्जर हो गए हैं। महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की ससुराल के रूप में भी डलमऊ जाना जाता है। तो यहीं गंगा तट पर मुगलकालीन चमेली बाग भी खंडहर में तब्दील हो चुका है।