नज़रिया

जब तुम सांत्वना देते हो स्वयं को, तो तुम संतुष्ट नहीं होते- ओशो

वह व्यक्ति जो स्वस्थ, निर्भार, निर्बोझ, ताजा, युवा, कुंआरा अनुभव करता है, वही समझ पाएगा कि संतोष क्या है। अन्यथा तो तुम कभी न समझ पाओगे कि संतोष क्या होता है-यह केवल एक शब्द बना रहेगा।

संतोष का अर्थ हैः जो कुछ है सुंदर है; यह अनुभूति कि जो कुछ भी है श्रेष्ठतम है, इससे बेहतर संभव नहीं। एक गहन स्वीकार की अनुभूति है संतोष; संपूर्ण अस्तित्व जैसा है उस के प्रति ‘हां’ कहने की अनुभूति है संतोष।

साधारणतया मन कहता है, ‘कुछ भी ठीक नहीं है।’ साधारणतया मन खोजता ही रहता है शिकायतें- ‘यह गलत है, वह गलत है।’ साधारणतया मन इनकार करता है: वह ‘न’ कहने वाला होता है, वह ‘नहीं’ सरलता से कह देता है। मन के लिए ‘हां’ कहना बड़ा कठिन है, क्योंकि जब तुम ‘हां’ कहते हो, तो मन ठहर जाता है; तब मन की कोई जरुरत नहीं होती।

क्या तुमने ध्यान दिया है इस बात पर? जब तुम ‘नहीं’ कहते हो, तो मन आगे और आगे सोच सकता है; क्योंकि ‘नहीं’ पर अंत नहीं होता। नहीं के आगे कोई पूर्ण-विराम नहीं है; वह तो एक शुरुआत है। ‘नहीं’ एक शुरुआत है; ‘हां’ अंत है।

जब तुम ‘हां’ कहते हो, तो एक पूर्ण विराम आ जाता है; अब मन के पास सोचने के लिए कुछ नहीं रहता, बड़बड़ाने-कुनमुनाने के लिए, खीझने के लिए, शिकायत करने के लिए कुछ नहीं रहता- कुछ भी नहीं रहता। जब तुम ‘हां’ कहते हो, तो मन ठहर जाता है; और मन का वह ठहरना ही संतोष है।

संतोष कोई सांत्वना नहीं है- यह स्मरण रहे। मैंने बहुत से लोग देखे हैं जो सोचते हैं कि वे संतुष्ट हैं, क्योंकि वे तसल्ली दे रहे हैं स्वयं को। नहीं, संतोष सांत्वना नहीं है, सांत्वना एक खोटा सिक्का है। जब तुम सांत्वना देते हो स्वयं को, तो तुम संतुष्ट नहीं होते।

वस्तुतः भीतर बहुत गहरा असंतोष होता है। लेकिन यह समझ कर कि असंतोष चिंता निर्मित करता है, यह समझ कर कि असंतोष परेशानी खड़ी करता है, यह समझ कर कि असंतोष से कुछ हल तो होता नहीं-बौद्धिक रूप से तुमने समझा-बुझा लिया होता है अपने को कि ‘यह कोई ढंग नहीं है।’

तो तुमने एक झूठा संतोष ओढ़ लिया होता है स्वयं पर; तुम कहते रहते हो, ‘मैं संतुष्ट हूं। मैं सिंहासनो के पीछे नहीं भागता; मैं धन के लिए नहीं लालायित होता; मैं किसी बात की आकांक्षा नहीं करता।’ लेकिन तुम आकांक्षा करते हो। अन्यथा यह आकांक्षा न करने की बात कहां से आती?

तुम कामना करते हो, तुम आकांक्षा करते हो, लेकिन तुमने जान लिया है कि करीब-करीब असंभव ही है पहुंच पाना; तो तुम चालाकी करते हो, तुम होशियारी करते हो। तुम स्वयं से कहते हो, ‘असंभव है पहुंच पाना।’ भीतर तुम जानते होः असंभव है पहुंच पाना, लेकिन तुम हारना नहीं चाहते, तुम नपुंसक नहीं अनुभव करना चाहते, तुम दीन-हीन नहीं अनुभव करना चाहते, तो तुम कहते हो, ‘मैं चाहता ही नहीं।’

तुमने सुनी होगी एक बहुत सुंदर कहानी। एक लोमड़ी एक बगीचे में जाती है। वह ऊपर देखती हैः अंगूरों के सुंदर गुच्छे लटक रहे हैं। वह कूदती है, लेकिन उसकी छलांग पर्याप्त नहीं है। वह पहुंच नहीं पाती। वह बहुत कोशिश करती है, लेकिन वह पहुंच नहीं पाती।

फिर वह चारों ओर देखती है कि किसी ने उसकी हार देखी तो नहीं। फिर वह अकड़ कर चल पड़ती है। एक नन्हा खरगोश जो झाड़ी में छिपा हुआ था बाहर आता है और पूछता है, ‘मौसी, क्या हुआ?’ उसने देख लिया कि लोमड़ी हार गई, वह पहुंच नहीं पाई। लेकिन लोमड़ी कहती है, कुछ नहीं अंगूर खट्टे हैं।

साभारः ओशो वर्ल्ड फाउंडेशन, नई दिल्ली
पुस्तकः पंतजलि योग सूत्र भाग-3
प्रवचन नं. 9 से संकलित

 

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *