बात बहुत मामूली थी। सबेरे नौ बजे शहर के अहीर टोले का एक लड़का गोपीचंद यादव हमेशा की तरह साइकिल से कॉलेज जा रहा था। बी.ए फाइनल ईयर का छात्र था। रास्ते में मुसलमानों का एक मुहल्ला था दिलावरपुर। दिलावरपुर की एक गली से हाथों में किताबें लिए मलिक सईद नाम की एक लड़की उसी कॉलेज में पैदल जा रही थी। गोपीचंद के ही क्लास की छात्रा थी। गोपीचंद ने आगे-पीछे देखा और लड़की के पास पहुंच कर साइकिल धीमी कर दी।
उसने धीरे से पूछा, ‘कैसी हैं, मलिका जान ?’
लड़की ने कहा, ‘हम तो ख़ैरियत से हैं गोबरचंद, लेकिन आप अपनी खैरियत चाहते हैं तो जल्दी फूट जाइए। किसी ने देख लिया तो कस के जूते पड़ेंगे।’
गोपीचंद ने जेब से एक मुड़ा-तुड़ा कागज़ निकाला और उसे लड़की के हाथों में थमाकर साइकिल तेज कर दी।
दूर खड़े एक मुसलमान लड़के ने न जाने कैसे देख लिया कि अहीर टोले का एक हिन्दू लड़का दिलावरपुर की एक मुसलमान लड़की की इज्जत पर हाथ डाल रहा है। बात गंभीर थी। उसकी चीख-पुकार सुनकर मुहल्ले के दस-बीस लोग पलक झपकते जमा हो गए। भागते हुए लड़के को खदेड़ कर साइकिल समेत दबोच लिया गया। कैफियत पूछने की जरूरत नहीं थी। लात-जूतों और लाठी-डंडे से जमकर पिटाई हो गई उसकी। लड़की से वह मंजर न देखा गया तो वह दूसरी गली पकड़ कर खिसक ली।
गोपीचंद लंगड़ाते-लंगड़ाते अहीर टोला पहुंचा। आग की तरह यह खबर टोले भर में फैल गई कि दिलावरपुर के मुसलमानों ने एक हिन्दू स्टूडेंट को पीट-पीटकर अधमरा कर दिया है। किसी ने कहा, लड़का अब मरा कि तब मरा। एक आदमी ने उसके मरने का बाकायदा ऐलान भी कर दिया। आधे घंटे में टोले के सौ-डेढ़ सौ लोग इकठ्ठा गए। किसी के हाथ में लाठी थी, किसी के हाथ में भाला। बदले की योजना पर विमर्श चला। एक ने कहा, अभी हमला कर देना ठीक रहेगा। दूसरे ने कहा, सही मौके का इन्तजार किया जाय। कुछ बुजुर्गों ने क़ानून अपने हाथ में न लेकर थाने में मुकदमा दर्ज कराने की सलाह दी।
यह बहस अभी जारी थी कि दिलावरपुर के दो मुसलमान लड़कें साइकिल से उधर से गुजरे। भीड़ देखकर उन्होंने पूछा कि माजरा क्या है। उनका यह पूछना था कि दस-बीस लोग भूखे शेर की तरह उनपर टूट पड़े। आधे घंटे तक जमकर उनकी कुटाई हुई। दोनों लड़के साइकिल छोड़कर दिलावरपुर की और भाग निकले। कुछ ही देर में दिलावरपुर की ओर से बमबाजी की आवाजें आने लगीं। आवाजें बंद हुईं तो अहीर टोले के लोगों ने कहा कि हिन्दुओं की आन को चुनौती दी गई है। देखते-देखते इधर से भी बमबाजी शुरू हो गई। देर तक दोनों तरफ से बम चलते रहे। चुनौतियों के आदान-प्रदान में किसी टोले की मूंछें नीची न रह जायं, इस बात का पूरा ख्याल रखा गया।
थोड़ी देर बाद सड़कों पर पुलिस की गाड़ियां दौड़ने लगीं। लोगों को खदेड़-खदेड़ कर पीटा गया। दोनों मुहल्लों में पुलिस तैनात कर दी गई। दिन भर शांति रही, लेकिन शाम के बाद फिर से आतिशबाजी होने लगी। उसी रात खेत से दिशा-मैदान कर लौटते एक बूढ़े अहीर को चाकू मारा गया। बदले में एक मुसलमान लड़के को भाला मारकर घायल कर दिया गया। लोग हरवे हथियार लेकर सड़कों पर उतर आए। हालात बेकाबू देख शहर में कर्फ्यू का ऐलान हो गया।
तीन दिन बाद कर्फ्यू उठा। सड़कों पर लोगों की चहलकदमी फिर शुरू हुई। स्कूल-कॉलेज फिर से खुले। सात-आठ दिनों बाद जिंदगी ने फिर पुरानी रफ़्तार पकड़ ली। कॉलेज के पिछले गेट पर एक दिन गोपीचंद और मलिका की टक्कर हुई। गोपी ने कहा, ‘मुसलमान सचमुच जाहिल होते हैं। मुहब्बत और छेड़खानी में फर्क नहीं कर सकते।’
मलिका ने कहा, ‘तुम काफ़िर मुहब्बत का मतलब क्या जानो ! महबूबा के लिए थोड़ी पिटाई भी नहीं खा सके। टेंसुए बहाते पहुंच गए अहीरों के बीच।’
‘तुम मेरे साथ चाहे जो सलूक करो। कोई दूसरा साला मुझपर हाथ उठाएगा तो मैं बर्दाश्त नहीं कर सकता।’
‘इसलिए तुमने हिन्दुओं को भड़का कर दंगा करा दिया ?’
‘दंगा हिन्दुओं ने नहीं, मुसलमानों ने किया था। मारपीट पहले मुसलमानों ने की थी। बमबारी भी पहले तुम्हारी ओर से हुई। हमने मुसलमानों की गुंडई कम बर्दाश्त नहीं की।’
‘तुम्हारी नजर हिन्दुओं की गुंडई पर थोड़े न जाएगी। सारे हिन्दुओं की तरह तुम भी फिरकापरस्त हो। वैसे आज फैसला हो ही जाय। क्या मुझसे निकाह के लिए तुम इस्लाम कबूल कर सकते हो ?’
‘हरगिज नहीं। मैं अपना धर्म किसी कीमत पर नहीं छोड़ सकता। तुम मुझसे शादी करने के लिए हिन्दू बनोगी ?’
‘नामुमकिन ! मैं कुत्ता-बिल्ली बनना पसंद करूंगी, हिन्दू नहीं।’
गोपी ने चिढ कर कहा, ‘तो फिर हमलोग बातें क्यों कर रहे हैं ? हमारे रास्ते अभी और इसी वक्त अलग हो जाने चाहिए। हमेशा के लिए।’
मलिका ने कहा, ‘तुमसे बातें करती हैं मेरी जूती। मैं तो देखने आई थी कि मुसलमानी मार तुम्हें रास आई है कि नहीं।’
‘कोई हिन्दू तुम्हारे साथ निबाह नहीं कर सकता। किसी मुसलमान को ही खोजो। वही तुम्हे मुआफिक बैठेगा।’
‘खोजूंगी और तुमसे बेहतर खोजूंगी। तुम आज के बाद मुझसे मिलने की जुर्रत नहीं करना, वरना एक और फसाद हो जाएगा शहर में।’
‘तुम मुसलमान लोग दंगे के सिवा और कुछ नहीं सोच सकते ?’
सामने से लड़कों का एक झुंड चला आ रहा था। दोनों एक दूसरे को दुश्मनों की तरह घूरते हुए जुदा हो गए।
इस हादसे के बाद महीनों तक दोनों में बातें नहीं हुईं। दोनों दूर से एक दूसरे को देखकर रास्ता बदल लेते। गोपी अपने दोस्तों के बीच मुसलमानों को कुछ ज्यादा ही गालियां देने लगा। उसके मुताबिक़ देश के बंटवारे से लेकर आज तक देश में हुए सभी फसादों के लिए मुसलमान सीधे जिम्मेदार हैं। मलिका की सहेलियों के बीच बातचीत का अकेला मुद्दा हिन्दुओं की फिरकापरस्ती रह गया था। उसके अनुसार अगर हिन्दुओं का रवैया नहीं बदला तो मुल्क का एक और बंटवारा तय है। दोनों की इस तूफानी कैंपेनिंग का नतीजा यह हुआ कि पूरा क्लास हिन्दू और मुसलमान दो गुटों में बंट गया। दोनों गुट क्लास में अलग बैठने लगे। एक तरफ हिंदुस्तान और दूसरी तरफ पाकिस्तान। बीच में एक टेबुल लगाकर लाइन ऑफ़ कंट्रोल खींच दिया गया।
छह महीनों बाद गोपी को मलिका का लिखा एक पुर्जा मिला। लिखा था, ‘अजीब अहमक हो ! क्या तुम्हारे लिए यह जानना जरूरी नहीं कि मेरा निकाह होने वाला है ?’
गोपी ने लिखा, ‘मुबारक हो ! वैसे तुम्हारा निकाह हो या तलाक, मुझे क्या फर्क पड़ने वाला है ? तुम मेरे लिए मर चुकी हो।’
मलिका ने लिखा, ‘लड़का पटना यूनिवर्सिटी का टॉपर है। तुम्हारी तरह थर्ड डिवीजनर नहीं।’
गोपी ने लिखा, ‘मेरा थर्ड डिवीज़न भी मैंने अपनी मेहनत से हासिल किया है, चोरी से नहीं। मुझे इसपर गर्व है।’
मलिका ने लिखा, लड़के का फोटो देखोगे ? बड़ा स्मार्ट है, यार ! एकदम शाहरूख खान जैसा।’
गोपी ने लिखा, ‘अभी कल तक तो तुम्हें गोविंदा पसंद था। अब पसंद में भी फिरकापरस्ती ? तुम मुसलमानों की जात ही ऐसी होती है।’
मलिका ने लिखा, ‘मेरे निकाह पर रोने नहीं आओगे, काफ़िर ?’
गोपी ने लिखा, ‘निकाह पर नहीं। तुम्हारी तक़दीर पर रोने जरूर आऊंगा। इंतज़ार करना।’
मलिका ने लिखा, ‘मत आना। तुम्हारे बगैर मैं मर नहीं रही हूं।’
गोपी ने लिखा, ‘यहां भी कौन मरा जा रहा है। जहन्नुम में जाओ।’
कुछ महीनों बाद मलिका का निकाह हो गया। लड़का पटने का था। एम.ए में पढ़ रहा था। गोपी को उसके निकाह में शामिल होने का न्योता न मिलना था और न मिला। वैसे भी जिस मुहल्ले में कभी इतनी जबरदस्त पिटाई हुई हो, वहां जाना गोपी को गवारा नहीं होता। मलिका के जाने के बाद उसने कई दिनों तक सोचकर देखा। उसके चले जाने का कुछ ज्यादा अफ़सोस नहीं था उसे। उसने मलिका के लिखे तमाम प्रेमपत्र और पुरजे फाड़कर फेंक दिए।
बी.ए के बाद गोपी की पढ़ाई बंद हो गई। वह नौकरी की तलाश में लग गया। मलिका के जाने के एक साल बाद उसका ब्याह हुआ। पत्नी सुंदर और सुशील थी। दूसरे साल बेटी हुई। तीसरे साल दूरदराज के एक जिले में बी.डी.ओ ऑफिस में किरानी की नौकरी में लग गया। क्वार्टर मिला तो पत्नी और बच्ची को साथ ले आया। सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा था। उसे अपनी नौकरी और जिंदगी से कोई शिकायत न थी। इससे ज्यादा का सपना उसने कभी देखा भी नहीं था।
नौकरी का यह छठा महीना था। एक जरूरी फाइल लेकर वह एक शाम बी.डी.ओ साहब के क्वार्टर पर गया। मालुम हुआ कि साहब अभी इलाके से नहीं लौटे हैं। वह वापस लौट रहा था कि चपरासी ने आकर बताया कि साहब कुछ ही देर में लौटने वाले हैं। मेम साहब ने बैठने के लिए कहा है। चपरासी उसे बरामदे पर बिठाकर चला गया। वह फाइल उलट रहा था कि खिड़की के पीछे से आवाज आई, ‘कैसे हो गोबरचंद ?’
वह चौक गया। बिल्कुल वही आवाज। मुड़ कर खिड़की की तरफ देखा। मलिका ही थी। कुछ देर तक वह भौंचक रहा। समझ नहीं पाया कि क्या कहना चाहिए।
‘मैं जानती थी कि तुम यही हो। कई बार तुम्हें आते-जाते देखा है।’
गोपी अब भी चुप था।
‘तुम्हारा ब्याह हो गया ?’ मलिका ने पूछा।
‘हां, हो गया। एक बेटी भी है।’
‘कैसी है तुम्हारी बेगम ? हिन्दू है तो मुझसे अच्छी ही होगी ?’
‘बस ठीक है।’
‘पढ़ी-लिखी है ?’
‘इंटर पास है।’
‘तुमने कभी मेरी खोज-खबर नहीं ली ?’
‘क्या फायदा था ?’
‘बिना फायदे के तुम हिन्दू लोग कोई काम नहीं करते ?’
गोपी ने कुछ नहीं कहा। वह अबतक अपनी हैरानी से उबर नहीं पाया था।
मलिका ने पूछा, ‘तुम्हें कभी मेरी याद आती है ?’
‘तुम मुझे याद करती हो ?’
‘तुम्हें याद करती हूं तो बेसाख्ता हंसी छूट जाती है।’
‘क्यों ?’
‘मेरा वह पुरजा तुम्हें याद है ? मैंने तुम्हें चिढ़ाने के लिए अपने निकाह की बात लिखी थी। मुझे उम्मीद थी कि तुम मुझे अपने साथ भाग जाने को कहोगे।’
गोपी ने हैरत से उसे देखा। फिर कुछ सोचकर कहा, ‘तुम एक हिन्दू लड़के के साथ कैसे भाग सकती थी ? तुम्हें तो हिन्दू कुत्ते-बिल्लियों से बदतर लगते थे।’
‘मुसलमानों की शान में आपने भी कुछ कम कसीदे नहीं पढ़े थे, गोपी मियां !’
चपरासी चाय लेकर आ गया। दोनों चुप हो गए। वह बाहर लॉन में निकल गया तो गोपी ने कहा, ‘तुम्हारा एक बेटा है न ? कैसा है वह ? साहब के जैसा कि तुम्हारे जैसा ?’
‘चेहरा साहब पर गया है। आंखें मुझ पर। फितरत बिल्कुल तुम्हारे जैसी है। बात-बात पर बिदकता है कमबख्त।’ वह दुपट्टे में मुंह छिपाकर हंसने लगी।
अंधेरा हो आया था। वह फाइल लेकर उठ गया। बोला, ‘लगता है साहब के लौटने में देर होगी। मैं चलता हूं। कोई गलती हुई हो तो माफ़ कर देना।’
मलिका ने धीरे से कहा, ‘फिर आना।’
देखते-देखते उसकी नौकरी के डेढ़ साल बीत गए। इस दौरान मलिका से दुबारा उसकी मुलाक़ात नहीं हो पाई। कई बार वह काम से बी.डी.ओ साहब के घर गया, लेकिन उससे बात करने का कोई मौका हाथ नहीं लगा। खिड़की के पीछे उसकी झलक जरूर मिल जाती। वह अंदर से उसके लिए चाय भेजना नहीं भूलती। साहब को पता हो गया था कि वह उनकी ससुराल का रहने वाला है। उसके प्रति उनका व्यवहार सम्मानजनक हुआ करता था। गोपी के दफ्तर का रास्ता उनके क्वार्टर से होकर ही था। आते-जाते वह कभी दिख जाती तो उसे बड़े अदब से आदाब कहता था। एक-दो दफा चपरासी से लेकर उसके बच्चे को प्यार भी किया था। बच्चा सचमुच बहुत बिदकता था।
विधान सभा चुनाव आने वाला था। साहब की व्यस्तता काफी बढ़ गई थी। दिन भर दफ्तर में बैठकर रिपोर्ट तैयार करते और शाम को मतदान केन्द्रों के मुआयने और व्यवस्था में निकल जाते। देर रात घर लौटते। एक शाम दो उम्मीदवारों के समर्थकों के बीच गोलीबारी की सूचना पर थानेदार के साथ निकले तो आधी रात तक लौटकर नहीं आए। पता चला कि गांव से लौटते वक्त रास्ते में उनकी जीप दुर्घटनाग्रस्त हो गई है। गोपी ने सुना तो दो-चार लोगों के साथ एक खाली बस लेकर दुर्घटना वाली जगह के लिए रवाना हुआ। जख्मी हालत में बी.डी.ओ साहब को लेकर ब्लॉक अस्पताल आया। साहब बेहोश थे। माथा फट गया था। मुंह और कपडे खून से तर-ब-तर थे। मलिका पहले से वहां मौजूद थी। प्राथमिक चिकित्सा के बाद गोपी डाक्टर के साथ साहब को लेकर जिला अस्पताल चला गया। गोद में बच्चा लिए मलिका भी साथ गई। वहां बताया गया कि साहब खतरे से बाहर हैं। पूरी रात गोपी जगा रहा। अगले दिन साहब की देखभाल करने, दवा देने, डाक्टरों को बुलाने से लेकर मलिका के बच्चे को बहलाने तक का काम उसने अपने जिम्मे ले लिया। सब कुछ सामान्य होने पर दो दिनों बाद वह लौटा।
एक दिन गोपी किसी काम से जिला मुख्यालय गया तो काम के बाद फूलों का बूके लेकर साहब से मिलने अस्पताल पहुंचा। अस्पताल के बाहर किसी से बातें करती मलिका मिल गई। उसके फेवरिट नेवी कलर सलवार सूट में। गहरे लाल रंग की ओढ़नी से सर ढंका हुआ था। वह बहुत थकी-थकी और उदास लग रही थी।
गोपी ने उससे पूछा, ‘साहब कैसे हैं ?’
‘अच्छे हैं। दो दिनों बाद लौट आएंगे। तुम्हें तहेदिल से शुक्रिया कह रहे थे। कह रहे थे कि एक साले का फर्ज तुमने खूब निभाया है।’
‘तुम्हें साले वाली बात जरूर अच्छी लगी होगी ?’
मलिका मुस्काई, ‘मैं अबला नारी और क्या कर सकती थी ? मैंने तो सबके सामने वादा भी कर लिया कि अगले सावन में तुम्हें राखी बांधूंगी।’
वह साहब से मिला। वे स्वस्थ नजर आ रहे थे। सबसे हंस-बोल रहे थे। गोपी से गर्मजोशी से मिले। उसका शुक्रिया अदा किया। गोपी ने उन्हें बुके पेश किया और जल्दी घर लौटने की शुभकामनाएं दी।
एक सप्ताह बाद साहब लौट आए। अगले दिन से ऑफिस जाने लगे। इलाके का दौरा भी शुरू हो गया। चुनाव में कुछ ही दिन रह गए थे। एक शाम वह चुनाव की एक फाइल लेकर उनके क्वार्टर पर गया। वे बगल में सी.ओ साहब के यहां गए थे। चपरासी ऊसे बिठाकर साहब को खबर करने चला गया।
खिड़की के पीछे से आवाज आई, ‘परसो हजरतगंज में भारी दंगा हुआ है।’
‘तो ?’
‘तो क्या ? पूछो कि दंगा काहे के लिए हुआ है !’
‘बताओ !’
‘वहां एक हिन्दू लड़का एक मुसलमान लड़की को भगा ले गया था।’
‘अच्छा ही हुआ जो मैंने तुम्हें नहीं भगाया।’
‘तुमने तो बगैर मुझे भगाए ही दंगा करवा दिया था। वैसे तुम क्या लड़की भगाओगे ? मैं चाहूं तो कभी भी तुम्हें भगा ले जा सकती हूं।’
‘इतना भरोसा है खुद पर ?’
सामने साहब चले आ रहे थे। मलिका ने धीरे से कहा, ‘भरोसा है इसीलिए कह रही हूं। आज के बाद तुम कभी मत आना। मैं बुलाऊं तब भी नहीं।’
उस शाम के बाद कुछ महीनों तक गोपी बहुत उखड़ा-उखड़ा रहा। उसके अंदर का खालीपन उसके चेहरे से झलकता था। वह समझ गया था कि मलिका से अब कभी मुलाकात नहीं होगी। वैसे भी उनके रिश्ते को इससे लंबा खींचना मुमकिन नहीं था। दोनों के स्टेटस में फर्क आ गया था। शादी के बाद अगर इतना भी साथ मिल गया तो यह मलिका की बदौलत ही था।
देखते-देखते एक साल बीत गया। गोपी की पारिवारिक जिम्मेदारियां भी इस दौरान बढ़ गई। पिता के गुजर जाने के बाद जवान बहन उसके साथ ही रहने लगी। उसके लिए रिश्ते की तलाश में भागदौड़ भी करनी थी। जिंदगी की इस कशमकश में मलिका बहुत हद तक उसके दिलोदिमाग से उत्तर चुकी थी। अगले साल के शुरू में उसे मलिका का भेजा हुआ नए साल का ग्रीटिंग कार्ड मिला। कार्ड के पीछे बहुत छोटे अक्षरों में उसने लिखा था – ‘आकर मिल लो ! एक मुश्किल आन पड़ी है।’
गोपी को चिंता हुई। क्या मुश्किल आ सकती है उसे ? कहीं उस मुश्किल का ताल्लुक खुद गोपी से तो नहीं ? उसे एक साल पहले दी हुई मलिका की हिदायत याद आई। वह खुद अपनी बात वापस ले रही है तो मसला गंभीर ही होगा। उसकी वजह से अगर मलिका की जिंदगी में कोई तूफ़ान है तो उसे हर हाल में जाना चाहिए।
वह एक फाइल का बहाना लेकर ठीक उस वक़्त उसके क्वार्टर पर पहुंचा जब साहब घर पर नहीं थे। थोड़े इन्तजार के बाद वह खिड़की के पीछे आई। गोपी उससे कुछ पूछने के लिए बेचैन था, मगर उसकी संजीदगी देखकर साहस नहीं हुआ।
कुछ देर बाद मलिका ने कहा, ‘तुम्हें कुछ पता है ?’
‘क्या ?’ गोपी की फ़िक्र और बढ़ गई।
‘यही कि पाकिस्तान के वज़ीरे आज़म परवेज़ मुशर्रफ साहब आगरा आये हैं।’
‘तो ?’
‘तो क्या ? पूछो कि आगरा काहे के लिए आए हैं।’
‘बोलो !’
‘वे अमन और मुहब्बत का पैगाम लेकर आए हैं।’
‘तो ?’
‘तुम कबतक सरहद के पार थोबड़ा बिगाड़कर बैठे रहोगे ?’
‘मैं क्या कर सकता हूं ?’
‘समझौता वार्ता चलाकर देखो ! शायद मसले का कोई हल निकल आए।’
‘यही बकवास करने के लिए मुझे बुलाया था ?’
‘मेरे सामने तो यही मसला दरपेश था।’
‘मसला तुम्हारी तरफ से है। अपनी वह आखिरी बात याद है तुम्हे ?’
‘मैंने कहा था, तुम कभी नहीं मिलोगे मुझसे। अभी क्यों आए हो ?’
‘तुमने बुलाया था। अपनी मर्जी से नहीं आया हूं।’
‘मैं आज़मा रही थी कि मेरी हिदायत पर अमल कर सकते हो कि नहीं। मेरे अब्बा हुज़ूर सही फरमाते थे कि किसी काफ़िर पर यक़ीन नहीं किया जा सकता।’
गोपी उठ खड़ा हुआ। ‘तो मैं चलूं ?’
‘कहां जाओगे ? इस दर से उठ गए तो दोज़ख में भी जगह नहीं मिलेगी।’
गोपी सिर पकड़कर बोला, ‘तुम्हारी बातें मेरी समझ में नहीं आतीं।’
‘मेरी बातें तुम्हारी समझ में आएंगी भी नहीं। जिस तरह अटल जी आगरे में चुपचाप मुशर्रफ मियां को सुन रहे हैं, उसी तरह मुझे सुनो !’
‘बोलो !’
पिछले एक साल का हिसाब दो !’
‘जिंदगी की परेशानियों में उलझा रहा।’
‘तुम्हारी जिंदगी में मैं शामिल नहीं हूं ?’
‘तुमने मना जो कऱ दिया था।’
‘तब मन में आया तो मना कर दिया। अब मन में आया तो बुला लिया। मन हमेशा एक जैसा रहता है क्या ?’
‘मेरा भी कोई मन होगा, कभी सोचा है ?’
‘तुम अपने मन की क्यों नहीं करते ? तुम्हें किसने रोका है ? क्या तुम मेरे हुक्म के गुलाम हो ? अच्छा बताओ अभी तुम्हारा मन क्या कर रहा है ?’
‘ख़ुदकुशी कर लेने का।’ गोपी ने चिढ़कर कहा।
मलिका तेजी से अंदर गई। कुछ मिनटों बाद उसने एक कैप्सूल खिड़की के बाहर फेंका। गोपी ने सिर उठाकर देखा। वह बेहद गंभीर थी। उसने कहा, अगर मुझसे मुहब्बत करते हो तो खाओ। कैप्सूल में जहर है। पोटैसियम साइनाइड। एक दूसरे के बगैर जीने से हमारा मर जाना बेहतर है।’
गोपी ने कैप्सूल उठाकर खा लिया। मलिका ने भी कैप्सूल खाया और कहा, ‘अलविदा !’
गोपी कुछ देर आंखें मूंदे मौत का इंतज़ार करता रहा। पांच मिनट बाद उसने कहा, ‘कितनी देर में असर होगा ?’
‘मेरी मुहब्बत का असर तुमपर कितनी देर में हुआ था ?’
गोपी ने हिसाब लगाकर कहा, ‘एक साल में। क्यों ?’
‘जहर के असर के लिए भी एक साल इंतज़ार करो !’
गोपी झेंप गया। उसे मलिका पर नहीं, अपने पर गुस्सा आ रहा था। यह लड़की जब चाहती है उसे बेवक़ूफ़ बना जाती है। उसने पूछा, ‘तुम कभी सीरियस नहीं हो सकती ?’
‘शौहर के सामने चौबीसो घंटे सीरियस रहती हूं। तुम मेरे दूसरे शौहर क्यों बनना चाहते हो ? तुम्हें पता है, पिछले एक साल में मैं एक बार नहीं हंसी हूं। जब तक तुम्हारा चेहरा नहीं देख लूं, मुझे हंसी नहीं आती।’
गोपी गुस्से में उठकर चल दिया। मलिका ने कुछ नहीं कहा।
एक महीने बाद बी.डी.ओ साहब का तबादला पटना हो गया। एक खबर किसी के लिए अप्रत्याशित नहीं थी। उनका कार्यकाल भी पूरा हो गया था और पारिवारिक वज़हों से वे पटने के लिए कोशिश भी कर रहे थे। उनका परिवार वही रहता था। तबादले के एक सप्ताह बाद एक रात ट्रक से उनका सामान पटना चला गया। वे खुद परिवार के साथ अगली सुबह कार से निकलने वाले थे।
सुबह उनके क्वार्टर पर मिलने वालों का तांता लगा रहा। गोपी भी पत्नी के साथ उन्हें विदा करने गया। पत्नी अंदर चली गई। वह बरामदे पर साहब के साथ बैठ गया। लोगों ने उन्हें फूलों के हार पहनाए। मिलने-मिलाने के वादे हुए। थोड़ी देर बाद मलिका गोद में बच्चा लिए बाहर निकली। उसके साथ कॉलोनी की औरतों की भीड़ थी। बाहर निकलते ही उसने गोपी को घूरकर देखा। उसकी आंखें लाल थीं। दोनों मियां-बीवी जब गाडी में बैठने लगे तो माहौल ग़मगीन हो गया। गोपी ने कार के पास जाकर दोनों को आदाब किया। साहब उससे गले मिले और पटना आते रहने का अनुरोध किया। उसने मलिका की गोद में उछलते बच्चे को प्यार किया तो मलिका ने धीरे से एक मुड़ा हुआ कागज़ उसे थमा दिया। दोनों के बैठते ही गाडी चल पड़ी।
गोपी भारी मन और भारी क़दमों से घर लौटा। लौटते ही बिस्तर पर लेट गया। आंखें मूंद ली। आज पहली बार उसे अपने अंदर के वीराने का अहसास हुआ। यह अहसास उसे तब भी नहीं हुआ था जब मलिका का उससे झगड़ा हुआ था। तब भी नहीं जब निकाह के बाद वह शहर छोड़कर चली गई थी। तब भी नहीं जब उसने दुबारा मिलने से माने किया था।
उसने जेब से मलिका का दिया हुआ कागज़ निकाला। उसे खोलते वक़्त उसके हाथ कांप रहे थे। आठ-दस बार तह किया हुआ बड़ा सा पन्ना था। ऊपर एक राक्षसनुमा आदमी की तस्वीर बनी थी। माथे पर टीका और बड़ी सी चुटिया। जाहिर था, किसी काफ़िर की तस्वीर थी। पन्ने के बीचोबीच बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा था –
‘इधर क्या लेने आए थे, गोबरचंद ?
तुम जानते थे, लाइन ऑफ़ कंट्रोल पार करने का क्या मतलब होता है।
तुमने एक ऐसी जंग शुरू कर दी है, जिसका कोई नतीजा मुमकिन नहीं है।
आइंदा कभी सरहद पार करने की कोशिश मत करना।
अलविदा !’
गोपी ने कई-कई बार कागज़ पढ़ा। एक-एक हर्फ़ पर गौर किया। हर्फों के पीछे की इबारत पढ़ने की कोशिश की। आखिर में वह इस नतीजे पर पहुंचा कि मलिका नाम की औरत को समझ पाना उसके बूते की बात नहीं है।
उसने उससे भी बड़ा एक कागज़ निकालकर उस पर दोगुने बड़े अक्षरों में लिखा – ‘जहन्नुम में जाओ !’
थोड़ी देर बाद दोनों कागजों के छोटे-छोटे टुकड़ें खिड़की के बाहर हवा में उड़ रहे थे।
(ध्रुव गुप्त की फेसबुक वॉल से)