आज गंगा दशहरा है। हमारे पूर्वज राजा भगीरथ की वर्षों की कठोर तपस्या के बाद गंगा नदी के स्वर्ग यानी हिमालय से पृथ्वी पर अवतरण का दिन। राजा भगीरथ एक लोक कल्याणकारी शासक के रूप में जाने जाते थे। उन्होंने संभवतः सूखे और पानी की कमी से मरती अपनी प्रजा के कल्याण के लिए हिमालय से गंगा के समतल भूमि पर आने का मार्ग खुलवाया और प्रशस्त किया होगा। इस विराट कार्य में कितना जनबल, कितना अभियांत्रिक कौशल और कितना समय लगा होगा, इसकी कल्पना भी हैरान करती है। गंगा तब से वर्तमान उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, बिहार और बंगाल की जीवनरेखा बनी हुई है। गंगा को आदर देने लिए उसे देवी, मां दर्ज़ा दिया गया और उसके पानी को अमृत कहा गया। उत्तर भारत के सभी बड़े तीर्थ गंगा-तट पर बनाए गए। दुर्भाग्य यह कि अपने पूर्वजों की यह देन हम संभाल कर नहीं रख पाए। गंगा पर बने दर्ज़नों डैम और बांधों, दृष्टिहीन औद्योगीकरण, शहरी सभ्यता की अंधी दौड़ और धार्मिक कर्मकांडों ने आज हमारी पवित्र गंगा को दुनिया की सबसे प्रदूषित नदियों में एक बना दिया है। गंगा में हर रोज हजारों कल-कारखानों का जहरीला कचरा और सैकड़ों नगरों का मल-मूत्र प्रवाहित होता है। गंगा का पानी अब न पीने लायक रहा, न नहाने लायक और न खेतों की सिंचाई के लायक। आज की हालत यह है कि हमारी जुबान पर जब ‘हर हर गंगे’ आता है तो वस्तुतः हम ‘मर मर गंगे’ कह रहे होते हैं !
हम लज्जित हैं मां गंगा। गंगा दशहरा पर किस मुंह और किस नैतिक अधिकार से तुम्हे नमन और बाबा भगीरथ को श्रद्धांजलि कहें ?