साहित्य

स्त्री व्यथा पर निधि चौहान की कविता “नारी व्यथा”

द फ्रीडम न्यूज के साहित्य कॉलम में आज हम आपको रूबरू करवा रहे हैं युवा साहित्यकार निधि चौहान से। एक स्कूल में बतौर प्रिन्सिपल कार्यरत निधि चौहान सक्रिय तौर पर सामाजिक-मनोविज्ञान और लोक महत्व के विषयों पर कविता-लेख के माध्यम से खुद को व्यक्त करती रहती हैं। आप भी पढ़िए इनकी स्त्री व्यथा पर लिखी एक कविता नारी व्यथा-

मै बनना चाहती हूं ,
एक अदद फ़िल्म हीरोइन जैसी।

उन जैसी लंबी,
छहररी काया पाना।
उन जैसा हुस्न पाना।

करती हूं कोशिशे नाकाम सी,
वो सब बनने की जो मैं होती नही।।

लेकिन जब सोचती हूं, सच के धरातल पर आकर,
कि क्यो बनना है, मुझे ये सब।
आवाज आती है खुद से,
कि बनना है मुझे तुम्हारे लिए,

जिन्हें देख कर तुम आह भरते हो, जिसके लिए तुम सपने हज़ार देखते हो।
हाँ उन सपनों पर कब्जा करना चाहती हूं।

लेकिन सच के आईने में मुझे साफ दिखता है।

वो रोज की भागती जिंदगी में,
कैसे सवारूँ खुद को।
जिसमें मुझे मेरे उलझे बालो को भी बांधने का समय नही होता है।
होता है सुबह के चाय नाश्ते में बिखरना।

ओर उसी में लपेट कर हाथो से जूड़ा बना लेती हूं।

कैसे पहनूं वो कपड़े,
जो तुमको उनके बदन पर भाते है।लेकिन अपने समाज मे ये सब खराब कहलाते है।
पहन भी लू बन्द कमरे की चार दीवारी में।
तो तुम क्या मुझे निहारोगे वैसे ही, जैसे चकोर निहारता है चाँद को।
क्या तारीफ करोगे मेरे हुस्न की किसी शायर की तरह।

कैसे रखूंगी खुद के डाइट प्लान का ख्याल।
मुझे भागना पड़ता है अपने परिवार के ख्याल में।
कैसे बिताऊ घंटो जिम में।
जहाँ मेरे बच्चे भूखे इन्तेजार करते है।

कैसे न करूँ घर का काम खुद ही।क्योकि जो लाते हो तुम सैलरी ।
उसमे बजट मुझको बनाना है,
किसको क्या चाइये ये मुझे ही सम्हालना है।
कैसे कर दू बर्बाद उन चंद रुपयों को,
जिसके लिए तुम घंटो खटते हो,हम सब की ज़रूरतों को पूरा करने में ।

मैं खुश हूं यूही, टूटा फूटा बन सबर कर।
क्योकि मेरी खूबसूरती, मेरे परिवार की सुकून भरी खुशी में है, उनकी जिंदगी की चमक में खुद की चमक है।

 

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