मानव एक सामाजिक प्राणी है और समूह में रहना हमेशा से मानव की एक प्रमुख विशेषता रही है जो उसे सुरक्षा का एहसास कराती है। लेकिन आज जिस तरह से समूह एक उन्मादी भीड़ में तब्दील होते जा रहे हैं उससे हमारे भीतर सुरक्षा कम बल्कि डर की भावना बैठती जा रही है। भीड़ अपने लिये एक अलग किस्म के तंत्र का निर्माण कर रही है, जिसे आसान भाषा में हम भीड़तंत्र भी कह सकते हैं। भीड़ के हाथों लगातार हो रही हत्याएँ देश में चिंता का विषय बनता जा रहा है। आए दिन कोई-ना-कोई व्यक्ति हिंसक भीड़ का शिकार हो रहा है।
हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने देश भर में भीड़ द्वारा की जा रही हिंसक घटनाओं की निंदा की और केंद्र तथा राज्य सरकारों को दिशा-निर्देश जारी किये। साथ ही संसद से इस संबंध में कड़ा कानून बनाने के लिये कहा। सुप्रीम कोर्ट ने इस मसले पर केंद्र व राज्य सरकारों से 4 हफ्ते में रिपोर्ट मांगी है। पिछले दो महीनों में 17 लोगों की हिंसक भीड़ द्वारा हत्या की जा चुकी है। जबकि पिछले साल मई से अब तक व्हाट्सएप पर फैली अफवाहों के चलते 28 लोग हिंसक भीड़ का शिकार होकर जान गँवा चुके हैं।
क्या है भीड़ द्वारा की जाने वाली हिंसा ?
जब अनियंत्रित भीड़ द्वारा किसी दोषी को उसके किये अपराध के लिये या कभी-कभी अफवाहों के आधार पर बिना अपराध किये भी उसी समय सज़ा दी जाए अथवा उसे पीट-पीट कर मार डाला जाए तो इसे भीड़ द्वारा की गई हिंसा (Mob Lynching) कहते हैं। इस तरह भीड़ द्वारा की गई हिंसा में हमेशा एक संदेश निहित होता है जो भीड़ द्वारा समाज में प्रेषित किया जाता है। इस तरह की हिंसा में किसी कानूनी प्रक्रिया या सिद्धांत का पालन नहीं किया जाता।
क्या हैं कारण?
बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक समुदाय के बीच अविश्वास की एक गहरी खाई होती है जो कि हमेशा एक-दूसरे को संशय की दृष्टि से देखने के लिये उकसाती है और मौका मिलने पर वे एक-दूसरे से बदला लेने के लिये भीड़ का इस्तेमाल करते हैं। समाज में व्याप्त गुस्सा भी इसमें एक उत्प्रेरक का कार्य करता है, चाहे वह गुस्सा किसी भी रूप में हो; यह गुस्सा शासन व्यवस्था, न्याय व्यवस्था या सुरक्षा को लेकर भी हो सकता है जो कि अंततः उन्मादी भीड़ के रूप में बाहर आता है। राजनीति भी हिंसात्मक भीड़ का प्रमुख कारण होती है, कभी वोट बैंक के लिये प्रायोजित हिंसा या कभी धर्म के नाम पर करवाई गई हिंसा, राजनीतिक दलों को राजनीति के लिये एक विस्तृत पृष्ठभूमि प्रदान करती है।
सुप्रीम कोर्ट का निर्देश
देश में भीड़ द्वारा पीट-पीटकर हत्या यानी मॉब लिंचिंग की बढ़ती घटनाओं को रोकने के लिये हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने निर्देश दिया है। न्यायालय ने संसद से मॉब लिंचिंग के खिलाफ नया और सख्त कानून बनाने को कहा है। न्यायालय ने इस संबंध में कहा, ‘कोई भी नागरिक अपने आप में कानून नहीं बन सकता है। लोकतंत्र में भीड़तंत्र की इज़ाज़त नहीं दी जा सकती।’ साथ ही न्यायालय ने राज्य सरकारों को सख्त आदेश दिया कि वे संविधान के मुताबिक काम करें। न्यायालय ने सरकार को इन बढ़ती घटनाओं की अनदेखी नहीं करने का निर्देश दिया। न्यायालय ने आगे कहा कि राज्यों को शांति बनाए रखने की ज़रूरत है। इन घटनाओं के लिये निवारक, उपचारात्मक और दंडनीय उपायों को निर्धारित किया गया है। इससे जुड़े अन्य सुझावों में नोडल अधिकारी की नियुक्ति, फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट में ट्रायल और पुलिस अधीक्षक स्तर के जाँच अधिकारियों की नियुक्ति जैसे कदम भी शामिल हैं।
बहुलवादी पहलू की रक्षा हो
इस दिशा-निर्देश में सर्वोच्च न्यायालय ने सोशल मीडिया पर भड़काऊ भाषण, संदेश तथा वीडियो इत्यादि को लेकर भी निगरानी करने का निर्देश सरकार को दिया है। जबकि इससे पूर्व एक मामले में न्यायालय ने सरकार पर सर्विलांस स्टेट बनने की टिप्पणी की थी। केंद्र और राज्यों को निर्देश देते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि बहुलवादी पहलू की रक्षा की जानी चाहिये। न्यायालय ने राज्य सरकारों को लिंचिंग रोकने से संबंधित दिशा-निर्देश को चार हफ्ते में लागू करने का आदेश दिया है।
संबंधित कानूनी प्रावधान
भारतीय दंड संहिता में लिंचिंग जैसी घटनाओं के विरुद्ध कार्रवाई को लेकर किसी तरह का स्पष्ट उल्लेख नहीं है और इन्हें धारा- 302 (हत्या), 307 (हत्या का प्रयास), 323 (जानबूझकर घायल करना), 147-148 (दंगा-फसाद), 149 (आज्ञा के विरूद्ध इकट्ठे होना) तथा धारा- 34 (सामान्य आशय) के तहत ही निपटाया जाता है। भीड़ द्वारा किसी की हत्या किये जाने पर आईपीसी की धारा 302 और 149 को मिलाकर पढ़ा जाता है और इसी तरह भीड़ द्वारा किसी की हत्या का प्रयास करने पर धारा 307 और 149 को मिलाकर पढ़ा जाता है तथा इसी के तहत कार्यवाही की जाती है। आपराधिक दंड संहिता की धारा 223A में भी इस तरह के अपराध के लिये उपयुक्त क़ानून के इस्तेमाल की बात कही गई है, सीआरपीसी में भी स्पष्ट रूप से इसके बारे में कुछ नहीं कहा गया है। भीड़ द्वारा की गई हिंसा की प्रकृति और उत्प्रेरण सामान्य हत्या से अलग होते हैं इसके बावजूद भारत में इसके लिये अलग से कोई कानून मौजूद नहीं है।
कानूनों में संशोधन या नए कानूनों की आवश्यकता
देश में कानून तो पर्याप्त हैं, लेकिन उन कानूनों का ईमानदारीपूर्वक पालन न करने से अपराधों में वृद्धि देखी गई है। कानूनों का क्रियान्वयन उचित ढंग से नहीं किया जा रहा है। कानून का क्रियान्वयन करने की ज़िम्मेदारी व्यवस्थापिका की होती है लेकिन कार्यकारी स्तर पर ही लचरता के कारण इसमें अपेक्षित परिणाम नहीं प्राप्त होता है। राजनैतिक हस्तक्षेप और अपराधियों को महिमामंडित करने की वर्तमान प्रवृत्ति के कारण इस तरह की घटनाओं में शामिल लोगों का मनोबल बढ़ता है, अतः नए कानून के आने से इन घटनाओं में शामिल लोगों के मन में कानून के डर को स्थापित किया जा सकेगा। कानूनों को लागू करने वाले तंत्र में अपेक्षित समर्पण और व्यावसायिक दक्षता की कमी है। पहले अपराधियों को इस हद तक लाचार कर दिया जाता था की वे दोबारा अपराध के लिये साहस नहीं जुटा पाते थे लेकिन अब प्रशासनिक महकमे में यह कूवत नहीं दिखती। वर्तमान सामाजिक परिस्थितियों और समय के हिसाब से भी विद्यमान कानूनों में संशोधन या नए कानूनों की आवश्यकता दिखती है।
भीड़ द्वारा की जाने वाली हिंसा को रोकने के उपाय
कानूनों का निष्ठापूर्वक पालन किया जाना चाहिये, इस तरह की घटनाओं को रोकने के लिये शुरुआती कदम उठाते हुए त्वरित कार्यवाही की जानी चाहिये। अपराधियों को राजनैतिक प्रश्रय न प्रदान करते हुए उनके लिये सख्त-से-सख्त सज़ा सुनिश्चित की जानी चाहिये। हर परिस्थिति में निवारक उपायों का क्रियान्वयन संभव नहीं है, अतः पुलिस को ऐसी स्थिति में उचित कदम उठाने की अनुमति दी जानी चाहिये। पुलिस बलों का तकनीकी और कौशल उन्नयन किया जाना चाहिये, साथ ही पुलिस बलों की संख्या में वृद्धि भी की जानी चाहिये।
विशेषज्ञ कानूनविदों की व्यवस्था की जानी चाहिये ताकि अपराधी कानून की कमियों का फायदा उठाते हुए बच न निकलें। इस तरह की घटनाओं में सोशल मीडिया द्वारा फैलाई गई अफवाहों का सर्वाधिक योगदान होता है जो भीड़ को एकत्रित करने में बड़ी भूमिका अदा करती है, अतः इन पर लगाम लगाने की सख्त आवश्यकता है।
सख्त और असरदायक कानून बनाने की आवश्यकता
अभी तक आम हत्या और भीड़ द्वारा की गई हत्या को कानून के दृष्टि से एक ही माना जाता है, इन दोनों को कानूनन अलग-अलग परिभाषित करना होगा। भीड़ द्वारा की गई हत्या की पहचान करनी होगी और फिर उसके बाद उस पर दहेज रोकथाम अधिनियम और पॉस्को की तरह एक सख्त और असरदायक कानून बनाना पड़ेगा। सोशल मीडिया और इंटरनेट के प्रसार से भारत में अफवाहों के प्रसार में तेज़ी देखी गई है जिससे समस्या और भी गंभीर हो गई है। एक रिसर्च के मुताबिक, 40 फीसदी पढ़े-लिखे युवा भी खबर की सच्चाई को नहीं परखते और उसे अग्रसारित कर देते हैं, इस संदर्भ में व्यापक जागरूकता की आवश्यकता है।
हाल-फिलहाल के दिनों में उन्मादी भीड़ द्वारा एक के बाद एक कई इंसानों की जान ले ली गई। यह एक ऐसा तंत्र है जिसकी न तो कोई विचारधारा है और न ही कोई सरोकार। वो कहीं भी किसी भी बात पर आक्रामक हो जाती है और जिस किसी से भी इसको नफरत या घृणा होती है उसे उसी वक्त सज़ा देने का फैसला कर देती है। इन घटनाओं में बढ़ोतरी होने की वज़ह लोगों के मन में बसा गुस्सा है। वह गुस्सा किस बात पर है यह मायने नहीं रखता। लोग गुस्से में हैं, नाराज़ हैं और हताश हैं लेकिन उन्हें खुद पता नहीं है कि ऐसा क्यों है। इसे कानून व्यवस्था की समस्या के तौर पर ही नहीं बल्कि समाज में बनी विसंगतियों के समाधान द्वारा ही सुलझाया जा सकता है।