भारत सरकार दो राष्ट्रीय छुट्टियों के उत्सवों का नेतृत्व करती है। एक है स्वतंत्रता दिवस, जो 15 अगस्त को होता है और दूसरा है गणतंत्र दिवस, जो 26 जनवरी को मनाया जाता है। पहले उत्सव को हम पहले ब्रिटिश राज के खात्मे और भारतीयों को सत्ता मिलने के उत्सव के तौर पर मनाते हैं। हालांकि इस दिन पूरी तरह स्वाधीनता नहीं मिली थी क्योंकि 15 अगस्त 1947 के बाद भी देश के प्रमुख लॉर्ड माउंटबेटन अगले 10 महीनों तक बने रहे। इस दौरान, कांग्रेस पार्टी ने रियासतों को भारतीय संघ में एकीकृत करना शुरू कर दिया था, और कई बार इसमें माउंटबेटन की मदद ली गई। कुछ रियासतें दूसरों के मुकाबले मुश्किल से सहमत हुईं। मसलन, जोधपुर के राजा हनवंत सिंह पाकिस्तान में शामिल होना चाहते थे और हैदराबाद के निजाम उस्मान अली खान स्वतंत्र रहना चाहते थे। माउंटबेटन ने इन व्यक्तियों को भारत की ओर खींचा। और यह काम कांग्रेस पार्टी के लिए भी मददगार रहा क्योंकि वह एकीकरण का मुश्किल काम कर रही थी। यह कार्य कठिन था क्योंकि कई रियासतों ने कहा था कि अंग्रेजों के पीछे हटने के साथ ही ‘राज’ के साथ उनका समझौता रद्द हो गया।
स्वतंत्रता दिवस को एक कट-ऑफ बिंदु के रूप में देखा जाता है लेकिन कई मायनों में ऐसा नहीं था। 1947 से पहले के कुछ दशकों में अंग्रेजों ने भारतीयों को महत्वपूर्ण शक्ति और अधिकार हस्तांतरित किए थे। 1930 के दशक के अंत तक यह पहले ही स्पष्ट हो गया था कि ब्रिटिश निकट भविष्य में किसी भी समय भारत छोड़ देंगे। आजादी के बाद जो लोग भारत का नेतृत्व करेंगे, नेहरू और पटेल और बाकी अन्य को विधायिकाओं में काम का अनुभव था क्योंकि अंग्रेजों ने उनके साथ सीमित सत्ता साझा करने की अनुमति दे दी थी। लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि भारतीय सेना अपने गठन और निर्माण में पूरी तरह से ब्रिटिश थी। दरअसल ब्रिटिश भी एक कठिन समय में घिरे हुए थे, खासकर द्वितीय विश्व युद्ध के साथ, जिसमें उनकी सीमित भूमिका थी। इन परिस्थितियों में भारत का प्रबंधन करना काफी कठिन था। जैसा कि हम 2021 तक में देखते हैं कि हमारी आत्मानिर्भर सरकार बड़े घाटे में चल रही है, चबकि इसे कर्ज लेकर चलाया जाना चाहिए। और आखिरी बात, चर्चिल और अमेरिकी राष्ट्रपति रूजवेल्ट ने 1941 में अटलांटिक चार्टर नामक एक दस्तावेज पर हस्ताक्षर किए थे, जिसने हिटलर की हार के बाद दुनिया को उपनिवेश से मुक्त करने और सभी लोगों को आत्मनिर्णय का अधिकार देने के लिए प्रतिबद्ध किया था।
इन सभी कारणों के चलते, 15 अगस्त तो आना ही था। हालांकि हम आधी रात को स्वतंत्रता शब्द का प्रयोग करते हैं, जिससे यह भाव मिलता है कि यह सब एक पल में हुआ है। लेकिन दरअसल यह एक लंबी समय सीमा में बंधी प्रक्रिया थी। 15 अगस्त और उसके अर्थ को पूरी तरह से समझने के लिए हमें इस पृष्ठभूमि को समझना होगा।
जिस दूसरी छुट्टी की अगुवाई सरकार करती है, वह गणतंत्र दिवस है। यह उत्सव इस बात है जब भारत का संविधान, जो स्वतंत्रता से पहले लिखा जाना शुरू हुआ था (क्योंकि अंग्रेजों ने इसकी अनुमति दी थी) 1950 में औपचारिक रूप से लागू हुआ। उस दिन हम भारत को एक गणतंत्र के रूप में मनाते हैं। इसका क्या मतलब है? इसका अर्थ है कि ऐसी सरकार जहां सत्ता लोगों के पास होती है। यह भारतीय लोग ही हैं जो संप्रभु हैं और कोई व्यक्ति नहीं हैं। यह उनके प्रतिनिधियों के माध्यम से चलने वाली उनकी सरकार है। और इसलिए गणतंत्र दिवस संविधान का उत्सव है, वह दस्तावेज जो कहता है कि भारतीय संप्रभु हैं। सवाल है: क्या हम संप्रभु हैं? जवाब न है।
भारत में संप्रभु वास्तव में राज्य है, जिसका अर्थ है सरकार और सारा तंत्र नियंत्रित है। यह लोग नहीं हैं। लोग राज्य के लिए उपयोगी हैं क्योंकि वे इसे वैधता देते हैं लेकिन उन्हें सरकार के रास्ते में आने वाले अवरोधों के रूप में भी देखा जाता है।
यही कारण है कि पिछले कुछ वर्षों में संविधान को गंभीर रूप से कमजोर किया गया है। यह सच है कि यह सभी सरकारों के दौरान हुआ है लेकिन यह भी उतना ही सच है कि वर्तमान सरकार के तहत इसमें विशेष रूप से तेजी आई है। ऐसा तीन तरह से हुआ है। सबसे पहले मौलिक अधिकारों पर हमले के माध्यम से। हालांकि संवैधानिक रूप से इनकी गारंटी दी गई है, समानता का अधिकार, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, व्यवसाय, धर्म, आंदोलन का हक, सभा और संघ और जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार का अधिकार किसी भी अर्थपूर्ण तरीके से आज मौजूद नहीं है। यह सब क्यों और कैसे हुआ, इस बहस में जाने का यह लेख नहीं है, लेकिन किसी एक संवैधानिक विद्वान से पूछेंगे तो वे मेरी बात से सहमत होंगे। मैंने अपनी पिछली पुस्तक ‘हमारा हिंदू राष्ट्र’ में इस पर विस्तार से चर्चा की है।
दूसरा हमला राज्य सत्ता के दुरुपयोग और यह सुनिश्चित करने के माध्यम से किया गया है कि जो लोग कानून का उल्लंघन करते हैं लेकिन सत्ताधारी दल के पक्ष में हैं, उन्हें दंडित नहीं किया जाएगा या उनपर मुकदमा नहीं चलाया जाता है। इनमें अनुराग ठाकुर और कपिल मिश्रा जैसे मंत्री और विधायक शामिल हैं। एक न्यायाधीश ने इनके खिलाफ प्राथमिकी दर्ज करने का आदेश दिया लेकिन उसी रात उनका तबादला कर दिया गया और प्राथमिकी दर्ज नहीं की गई। इस तरह की बात अब भारत में आम हो गई है।
तीसरी बात संसद से संबंधित है। वे दल जिन्हें भारतीयों ने वोट दिया है लेकिन वे सरकार का हिस्सा नहीं हैं, उनके साथ तिरस्कार के साथ व्यवहार किया जाता है, जैसे कि उनके मतदाता अप्रासंगिक हैं। सरकार ने इनमें से अधिकतर पार्टियों पर संसद में हंगामा खड़ा करने के आरोप लगा दिए हैं। लेकिन हकीकत और समस्या यह है कि संसदीय शासन और नियमों के उल्लंघन की पहल सरकार की तरफ से गई थी। राज्यसभा में बिना वोट के कृषि कानून पारित करना असंवैधानिक था।
यह सब हमें उस सवाल की ओर ले जाते हैं कि आखिर- हम कितने गणतंत्र हैं? और अगर हम आजादी के सात दशक बाद विशेष रूप से गणतंत्र नहीं हैं तो फिर हमारा भविष्य क्या है? ये ऐसी चीजें हैं जिन पर हमें एक राष्ट्र के रूप में विचार करना होगा। स्वतंत्रता दिवस हमें सभी पार्टियों में एक राष्ट्र के रूप में एकजुट करने के लिए है क्योंकि यह उन बाहरी लोगों पर हमारी जीत का प्रतीक है जो खुद को भारतीय नहीं मानते थे। यह सोचने का एक अच्छा क्षण है कि हमने उस दिन जो शक्ति हासिल की थी और जो हम अपने बाद आने वाली पीढ़ियों के लिए छोड़ रहे हैं, उसके साथ हमने क्या किया है।