देश में प्रशासनिक सुधारों की चर्चा समय-समय पर होती ही रहती है तथा इस दिशा में जब भी कोई बड़ी कार्रवाई होती है तो चर्चा का बाज़ार गर्म हो जाता है। उत्तर प्रदेश सरकार ने प्रदेश के भ्रष्ट अधिकारियों के खिलाफ कड़े कदम उठाते हुए 600 अधिकारियों पर कार्रवाई की है। इनमें से 200 अधिकारी ऐसे हैं, जिन्हें पिछले दो साल में VRS दिया गया है। भ्रष्टाचार के खिलाफ ज़ीरो टालरेंस नीति के तहत 400 से ज्यादा अधिकारियों और कर्मचारियों को दंडित किया गया है यानी अब उनका प्रमोशन नहीं होगा और उनका ट्रांसफर भी कर दिया गया है। उत्तर प्रदेश देश का पहला ऐसा राज्य है जिसने इतने बड़े पैमाने पर इस तरह की कार्रवाई की है। इसके अलावा हाल ही में केंद्र सरकार ने भी 15 आयकर अधिकारियों पर इसी तरह की कार्रवाई की है।
भारतीय प्रशासनिक ढाँचा प्रमुखतः ब्रिटिश शासन प्रणाली पर ही आधरित है। भारतीय प्रशासन के विभिन्न ढाँचागत और कार्यप्रणालीगत पक्षों, जैसे- सचिवालय प्रणाली, अखिल भारतीय सेवाएँ, भर्ती, प्रशिक्षण, कार्यालय पद्धति, स्थानीय प्रशासन, ज़िला प्रशासन, बजट प्रणाली, लेखापरीक्षा, केंद्रीय करों की प्रवृत्ति, पुलिस प्रशासन, राजस्व प्रशासन आदि ब्रिटिश शासन में भी निहित हैं।
प्रशासनिक सुधारों के माध्यम से प्रशासन में इस प्रकार के सुनियोजित बदलाव लाए जाते हैं जिससे प्रशासनिक क्षमताओं में वृद्धि होती है तथा निर्धारित लक्ष्यों की प्राप्ति की दिशा में आगे बढ़ने में सहूलियत होती है। आर्थिक व सामाजिक लक्ष्यों की प्राप्ति के लिये प्रशासनिक क्षेत्र को चौकस और चाक-चौबंद रहना ज़रूरी है। यदि ऐसा नहीं है तो अपेक्षित सुधार किया जाना आवश्यक है। प्रशासनिक सुधारों के माध्यम से किसी भी विभाग या संगठन को आवश्यकताओं के अनुरूप परिवर्तित किया जा सकता है। सामान्यतया योजनाओं का अपेक्षित परिणाम न मिलने या सार्वजनिक हित के कल्याणकारी कार्यक्रमों के क्रियान्वयन में कोताही दिखाई देने पर प्रशासनिक सुधारों की प्रक्रिया को अपनाया जाता है और यह प्रक्रिया विकसित देशों में भी दिखाई देती है और विकासशील देशों में भी।
ब्रिटिश काल में शासन से तात्पर्य मुख्यतः कानून एवं व्यवस्था की स्थिति को बनाए रखना था, लेकिन देश के आज़ाद होने के बाद नए माहौल में आवश्यकताएँ बदलने के साथ ही प्रशासनिक सुधारों की ज़रूरत महसूस की गई। आज़ादी के बाद देश में सामाजिक व आर्थिक संरचना में बड़े परिवर्तनों के लक्ष्य के मद्देनज़र पंचवर्षीय योजनाएँ आरंभ की गईं, जिनके लिये प्रशासनिक ढाँचे में सुधार अपेक्षित था। इसके अलावा सार्वजनिक क्षेत्र में निरंतर बढ़ते भ्रष्टाचार व अन्य खामियों को नियंत्रित करने के लिये भी प्रशासनिक सुधारों की आवश्यकता थी। इसके अलावा लोगों की आवश्यकताएं निरंतर बदलती रहती हैं और प्रशासन को भी उन्हीं के अनुरूप बदलना पड़ता है। यह परिवर्तन ही है, जो प्रशासनिक प्रक्रिया के दोषपूर्ण कार्य संचालन को ठीक करने का काम करता है अर्थात् प्रशासनिक सुधारों की मांग करता है।
ब्रिटिश काल में प्रशासनिक सुधारों के लिये एचिसन आयोग, ली आयोग तथा इस्लिंगटन आयोग गठित किये गए थे। इसके अलावा लोक सेवा के विकासक्रम में वर्ष 1918 में मांटेग्यू-चेम्सफोर्ड-रिपोर्ट सामने आई। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात वर्ष 1947 में ‘सचिवालय पुनर्गठन समिति’, वर्ष 1948 में उद्योगपति कस्तूरभाई लालभाई के नेतृत्व में ‘मितव्ययिता समिति’, वर्ष 1949 में ‘आयंगर समिति’ ने अपने-अपने सुझाव दिये।
ए.डी. गोरेवाला समिति
इसके बाद मार्च 1951 में ए.डी. गोरेवाला समिति ने 70 पृष्ठों में ‘लोक प्रशासन पर रिपोर्ट’ पेश की। इसमें प्रशासन में सर्वोत्तम महत्व के विषयों को प्राथमिकता, निश्चित परिणामों की आशा में अत्यधिक खर्च न करना, कर्मचारियों का ईमानदार, सत्यनिष्ठ एवं निष्पक्ष होना, मंत्रियों, विधायकों तथा प्रशासकों में उत्तरदायित्व की भावना होना तथा भर्ती, प्रशिक्षण आदि की उचित व्यवस्था होने जैसी महत्त्वपूर्ण अनुशंसाएँ की गईं।
कांग्रेसी नेता के. संथानम की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया
भारत जब आज़ाद हुआ तब भी लोक प्रशासन में भ्रष्टाचार व्याप्त था। वर्ष 1948 में सेना का जीप खरीद घोटाला सामने आया और देश में भ्रष्टाचार कमोबेश यूं ही चलता रहा। वर्ष 1957 का मूंदड़ा घोटाला भ्रष्टाचार का ऐसा बड़ा मामला था, जिसमें केंद्रीय मंत्री शामिल पाए गए थे। इस मामले में तत्कालीन वित्तमंत्री टी. टी. कृष्णमाचारी को इस्तीफा तक देना पड़ा था। इन परिस्थितियों में तत्कालीन गृह मंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने भ्रष्टाचार रोकने के तात्कालिक तंत्र की समीक्षा और सुझाव के लिये तमिलनाडु के वरिष्ठ कांग्रेसी नेता के. संथानम की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया। वर्ष 1962 में गठित इस समिति की सिफारिशों के आधार पर ही प्रथम और द्वितीय श्रेणी के सरकारी अधिकारियों पर भ्रष्टाचार के आरोपों की जाँच के लिये 1964 में केंद्रीय सतर्कता आयोग का गठन हुआ। इसके अलावा पहली बार ‘लोकपाल’ नामक संस्था का विचार भी संथानम की रिपोर्ट से ही निकला हुआ माना जाता है।
प्रथम प्रशासनिक सुधार आयोग
5 जनवरी, 1966 को मोरारजी देसाई की अध्यक्षता में प्रशासनिक सुधार आयोग का गठन हुआ। बाद में मोरारजी के केंद्रीय मंत्रिपरिषद में शामिल हो जाने की वज़ह से के. हनुमंतैया को अध्यक्ष नियुक्त किया गया आयोग ने अपनी पहली रिपोर्ट 20 अक्तूबर, 1966 को तथा दूसरी रिपोर्ट 30 जून, 1970 को पेश की जिनमें कुल 578 सुझाव दिये गए थे। इनमें प्रमुख थे:
लोक प्रशासकों के विरुद्ध जनता के अभियोगों के निराकरण हेतु ‘लोकपाल’ एवं ‘लोकायुक्त’ की नियुक्ति की जाए
मंत्रिपरिषद का आकार आवश्यकतानुसार रखा जाए
प्रधानमंत्री के अधीन कार्मिक विभाग की स्थापना की जाए
प्रधानमंत्री, वित्तमंत्री एवं किसी भी मंत्री को योजना आयोग का अध्यक्ष अथवा सदस्य नहीं बनाया जाए
योजना आयोग की अधिकतम सदस्य संख्या 7 रखी जाए
संविधान के अनुच्छेद 263 के तहत ‘अंतर्राज्य परिषद’ की स्थापना की जाए
सरकारी कर्मचारियों को हड़ताल का अधिकार न देना तथा उनकी समस्याएँ संयुक्त विचार-विमर्श एवं ‘नागरिक सेवक न्यायाधिकरण’ के माध्यम से हल की जाएँ
लेखा परीक्षा का दृष्टिकोण सकारात्मक व रचनात्मक हो
विभागों की वित्तीय क्षमता का विकास किया जाए
वित्त वर्ष की शुरुआत 1 नवंबर से होनी चाहिये
सार्वजनिक उपक्रमों के लिये ‘क्षेत्रक निगम प्रणाली’ तथा ‘लेखा परीक्षा मण्डल’ आदि की व्यवस्था की जाए
सरकारी अधिकारियों को अस्थायी रूप से लोक उपक्रमों में भेजने की प्रथा समाप्त की जाए
प्रशासनिक एवं सार्वजनिक जीवन का दीर्घ अनुभव रखने वालों को ही राज्यपाल पद पर नियुक्त किया जाए
सरकार के दायित्वों व कार्यों में वृद्धि के मद्देनज़र सेवाओं का गठन कार्यात्मक आधार पर किया जाए और इस आधार पर सेवाओं को आठ भागों में बांटा जाए
राज्यों में राष्ट्रपति शासन के दौरान अधिक हस्तक्षेप नहीं किया जाए
राज्यों में ‘कार्मिक विभाग’ एवं ‘लोक आयुक्त’ के पद की स्थापना की जाए
ज़िला प्रशासन को दो भागों- नियामकीय तथा विकासात्मक में बाँटा जाए
सरकार की अनिच्छा तथा नौकरशाही की उदासीनता की वज़ह से उपरोक्त अनुशंसाओं पर कोई उल्लेखनीय कार्यवाही नहीं हो पाई और ये ठंडे बस्ते में चली गईं।
द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग
31 अगस्त, 2005 को सरकार ने कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री वीरप्पा मोइली की अध्यक्षता में ‘द्वितीय प्रशासनिक आयोग’ का गठन किया। आयोग के अध्यक्ष ने जब वर्ष 2009 में पद त्यागा, तब तक यह अपनी सिफारिशों की 15 रिपोर्ट्स दे चुका था। इस पाँच सदस्यीय आयोग का प्रमुख कार्य मंत्रालयों एवं विभागों का पुनर्गठन करने तथा उनकी भूमिका को वैश्वीकरण के अनुरूप बनाने के लिये सिफारिशें देना था। इस आयोग को सरकार के सभी स्तरों पर देश के लिये एक सक्रिय, प्रतिक्रियाशील, जवाबदेह, सतत् प्रशासन के लिये सुझाव देने की ज़िम्मेदारी भी दी गई थी। इसके अलावा आयोग ने निम्नलिखित पर भी अपने सुझाव दिये:
भारत सरकार का संगठनात्मक ढाँचा
शासन में नैतिकता
कार्मिक प्रशासन की पुनर्संरचना
वित्तीय प्रबंधन प्रणालियों का सुदृढीकरण
राज्य स्तर पर प्रभावी प्रशासन सुनिश्चित करने के उपाय
प्रभावी ज़िला प्रशासन सुनिश्चित करने के उपाय
स्थानीय स्व-शासन और पंचायती राज संस्थान
सामाजिक पूंजी, विश्वास और भागीदारपूर्ण सरकारी सेवा प्रदायगी
नागरिक केंद्रित प्रशासन
ई-प्रशासन को प्रोत्साहित करना
संघीय राजतंत्र के मुद्दे
संकट प्रबंधन या आपदा प्रबंधन
सार्वजनिक व्यवस्था
नौकरशाही में सुधार के लिये द्वितीय प्रशासनिक आयोग की सबसे महत्त्वपूर्ण सिफारिश में कहा गया था कि 14 वर्षों की सेवा के बाद की जाने वाली समीक्षा मुख्यत: लोक सेवकों को उनके मज़बूत और कमज़ोर पहलुओं से अवगत कराने के उद्देश्य से होनी चाहिये। वहीं, 20 वर्षों की सेवा के बाद की जाने समीक्षा का उद्देश्य यह तय करना होना चाहिये कि सरकारी कर्मचारी/लोक सेवक आगे सेवा में रहने योग्य है अथवा नहीं।
संविधान की उद्देशिका और नीति निदेशक तत्त्व सरकार और प्रशासन तंत्र के मार्गदर्शी हैं। ये सुस्थापित विधि नहीं, बल्कि सरकार और प्रशासन के कामकाज का आईना हैं। प्रशासन तंत्र इन सूत्रों से नहीं जुड़ता और कोई भी लोकतंत्र स्पष्ट, कुशल एवं निष्पक्ष प्रशासन के अभाव में सफल नियोजन नहीं कर सकता। द्वितीय प्रशासनिक आयोग की रिपोर्ट में यह उल्लेख किया गया है कि सरकार के दृष्टिकोण में आवंटन आधारित विकास कार्यक्रमों से पात्रता आधारित विकास कार्यक्रमों की ओर अंतरण हुआ है। सभी क्षेत्रों में विकास पर ज़ोर दिया जा रहा है और केंद्रीय बजट बढ़ा है। इस सबके कारण संस्थागत प्रशासनिक और वित्तीय प्रबंधन का सुदृढ़ीकरण ज़रूरी है। विकास के सभी कार्यक्रमों के क्रियान्वयन के लिये प्रशासनिक प्रबंधन पर ज़ोर दिया गया है, लेकिन परेशानी यह है कि सभी कार्यक्रमों को अंतिम परिणति तक पहुँचाने वाले प्रशासन तंत्र की प्रथम वरीयता परिणाम देना नहीं, अपितु अपनी नौकरी बचाना है। आज के भारत की चुनौतियाँ सर्वथा नई हैं और इनके बरक्स प्रशासन के सामने भी चुनौतियों का नया स्वरूप आया है। लेकिन प्रशासनिक सुधारों के अभाव में इच्छित लक्ष्य प्राप्त करना बहुत कठिन हो गया है।