अन्न और जल के बिना जीवन सम्भव नहीं है। इस तथ्य से वाकिफ तो सभी है परन्तु इनके संरक्षण एवं बचत के प्रति संजीदा गिने चुने लोग ही हैं। आज भी समाज में ऐसे लोग हैं जिन्हें कड़ी मशक्कत के बाद भी एक जून की रोटी मयस्सर नहीं हो पाती वहीं दूसरी ओर ऐसा अभिजात्य वर्ग भी है, जिन्हें अन्न की बरबादी में जरा भी रहम नहीं आता है। यह अभिजात्य वर्ग समारोहों में अपनी शान-ओ-शौकत प्रदर्शित करने के लिये अतिथियों को छप्पन भोग परोसता है। इस छप्पन भोग के अधिकांश व्यंजन नाली में बहा दिये जाते हैं। यह एक गम्भीर सामाजिक अपराध है। अन्नदाता किसान के खून-पसीने द्वारा उत्पन्न अनाज भले ही आप अपने पैसे से खरीदकर लाते हैं और प्रकृति प्रदत्त अमृत तुल्य जल का बिल सरकार को अदा करते हों। इन वस्तुओं के उपयोग का अधिकार तो आपको है किन्तु दुरूपयोग का नहीं। क्योंकि अन्न किसान की सम्पत्ति है और जल राष्ट्रीय सम्पत्ति है।
पर्यावरण असन्तुलन के चलते जलवायु परिवर्तन, वैश्विक तापन बढ़ा है और इन सबका प्रभाव मौसम चक्र और फसल उत्पादन चक्र के रूप में देखने को मिल रहा है। तीव्र गति से बढ़ती हुई जनसंख्या के लिये अन्न और जल की प्रति व्यक्ति और प्रति जीव उपलब्धता पर भीषण संकट दिख रहा है। हालांकि इसके लिये वैश्विक स्तर पर कृत्रिम तरीकों द्वारा प्रयास ज़ारी है लेकिन प्रकृति प्रदत्त संसाधनों के अन्धाधुन्ध उपयोग से इसकी पूर्ति कहां तक सम्भव हो पायेगी; अब नहीं सोचा गया तो प्रलय का सामना भावी पीढ़ी को करना होगा। विश्व स्वास्थ्य संगठन और अन्य संगठनों की रिपोर्ट के अनुसार विश्व की एक तिहाई आबादी कुपोषण, स्वच्छ पेयजल और खाद्यान्न की उपलब्धता के कारण प्रभावित है तथा अन्य जीव जन्तु भी प्रभावित हैं।
“व्यक्ति ने जन्म लिया है तो उसे जीने का अधिकार है”। यही बात अन्य जीव जन्तुओं पर भी लागू होता है। संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार घोषणा पत्र और भारत के संविधान में सभी नागरिकों को स्वच्छ जल, स्वच्छ भोजन तथा कुपोषण को दूर करने के लिये राज्य को निर्देशित किया गया है। इसकी पूर्ति और वन्य जीवों के संरक्षण के लिये राज्य समय-समय पर अधिनियम और योजनाएं बनाकर लागू करते हैं। एक ओर जहां व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु प्राकृतिक संसाधनों; यथा वन्य उत्पाद, जल संसाधन, जीव जन्तुओं, पेड़-पौधों, पर्वतों आदि को सिर्फ अपने प्रति ही उत्तरदायी मानता है वहीं दूसरी ओर वन्य जीव जन्तुओं द्वारा एक निश्चित खाद्य श्रंखला का पालन किया जाता है। व्यक्ति को इन जीव-जन्तुओं से भी सीख लेनी चाहिये। जिससे जैवविविधता का संरक्षण हो सके।
जापान के मिनीमाता में पारे द्वारा हुई त्रासदी जग जाहिर है। यहां पर औद्योगिक कारखाने के दूषित जल के माध्यम से पारे का छोटा टुकड़ा सागर में जा मिला। इस छोटे टुकड़े को जलीय अपघटक वर्ग द्वारा उपभोग किया गया अपघटक से जलीय पादप →छोटे कीड़े→छोटी मछली→बड़ी मछली, अंततः मछलियों को व्यक्ति द्वारा उपभोग किया गया। जिससे वहां भीषण त्रासदी हुई और वहां के लोग आज तक प्रभावित हैं। अब समय आ गया है लोगों द्वारा प्राकृतिक संसाधनों और कृषिगत संसाधनों तथा वन्य जीव संसाधनों के प्रति अपने दृष्टिकोण और दिनचर्या में परिवर्तन लाएं; रहन-सहन का तरीका; अभिजात्य वर्ग द्वारा समारोहों में खाद्य सामग्री की बर्बादी को रोका जाये।भोजन के दुरुपयोग विशेषकर अति भोजन और विभिन्न प्रकार के भोजन के प्रति अपना दृष्टिकोण बदलें। इससे ऊर्जा का अपव्यय रूकेगा। अपने बच्चों को पर्यावरण के प्रति सचेत करें और वृक्षारोपण को प्रोत्साहन दें, घरों और कारखानों में उपयोग होने वाले जल का उचित प्रबन्धन करें।
ऐसे प्रयास न किये गए तो वह दिन दूर नहीं जब अनियमित मौसम चक्र का भयावह रूप विश्व के उन हिस्सों में फैल जाएगा। जहां अब तक खाद्य सामग्री की प्रचुरता होती थी, वहां की उपजाऊ जमीन रेगिस्तान में परिवर्तित होने लगेगी। इसका हालिया उदाहरण राजस्थान और गुजरात जैसे राज्यों में बाढ़ आना और मध्य भारत और उत्तर भारत आदि में सूखे का संकट के रूप में दिख रहा है।
यदि प्राकृतिक संसाधनों को सुचारू रूप से इस्तेमाल किया जाये; पर्यावरण हितैषी पौधों को रोपित किया जाये; ईको फ्रेन्डली वस्तुओं का प्रयोग किया जाये। अपने बच्चों को पर्यावरण के प्रति जागरुक किया जाए तो प्राकृतिक संसाधनों के साथ जैवविविधता का भी संरक्षण होगा। तथा सबसे बढ़कर सतत विकास के रूप में हम आने वाली पीढ़ीयों को बेहतर संसाधन दे सकेंगे।
राजेन्द्र वैश्य
(पर्यावरणविद् एंव अध्यक्ष, पृथ्वी संरक्षण)
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