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स्वराज और हिंदी- सूर्य प्रकाश अग्रहरि

हिंदी, यह विश्व की तीसरी सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा है। इसका इतिहास कोई एक दिन का न होकर वरन सदियों का प्रयास है। विभिन्न परिवर्तन के दौर से गुजरते हुए आज हिंदी को भारत देश की राजभाषा के तौर पर स्वीकार किया गया है। हिंदी के इतिहास में स्वराज के लिए किए गए प्रयासों का हर वह दौर शामिल है जिसने हिंदी को एक वैश्विक भाषा के रूप में तैयार किया। 

1764 के बक्सर युद्ध से 1857 तथा 1857 के स्वाधीनता संग्राम से 1947 में देश की आज़ादी तक उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद के खिलाफ किए गए संघर्षों में देश की जनता की बड़ी भूमिका रही है; खासकर 1857 से 1947 के बीच। यह वही समय था जब भारत के स्वतंत्रता आंदोलन ने भी स्वयं को संगठित करना आरंभ कर दिया था। स्वराज का और आधुनिक हिंदी साहित्य का विकास एक-दूसरे के साथ बल देते हुए हुआ। हिंदी साहित्य का इतिहास आज से हजार साल पीछे तक जाता है। 29 जनवरी 1780 को जेम्स ऑगस्तस हिक्की के संपादन में ब्रिटेन के औपनिवेशिक शासन के दौरान भारत की, बल्कि यह कहना उचित होगा कि एशिया की पहली साप्ताहिक समाचार पत्रिका ‘हिक्कीज़ बंगाल गजट’ के प्रकाशन के साथ ही प्रिंटिंग प्रेस और अखबारों की शुरुआत हुई लेकिन इसके 2 वर्ष के भीतर ही 30 मार्च 1782 से इसका प्रकाशन वारेन हेस्टिंग ने बंद करवा दिया था। ब्रिटिश साम्राज्य के विरोध में आवाज उठाने वाली भारतीय प्रेस और लेखों को दबाने के उद्देश्य से कंपनी ने अनेक कानून लागू किए। जिसमें सेंसरशिप ऑफ प्रेस एक्ट, 1799; 1818 का रेगुलेशन तृतीय; लाइसेंसिंग रेगुलेशन एक्ट,1823; मेटकॉफ एक्ट,1835 आदि कानून लाए गए। 1857 की लड़ाई के दौरान हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के अनेक समाचार पत्र पर रोक लगा दी गई थी। इसके बाद भारतीय प्रेस अधिनियम, 1910 ही बड़ा और मुख्य कानून बन गया और इसमें समय-समय पर संशोधन किए जाते रहे। औपनिवेशिक उद्यम और राष्ट्रवाद के जटिल प्रक्षेप पथ ने समकालीन आधुनिक भारतीय साहित्य का मार्ग प्रशस्त किया है जहाँ इतिहास के उपाख्यानों को साहित्यिक अभिव्यक्तियों से जोड़ा जाता है। स्वतंत्र भारत के उदय ने भारतीय लेखकों और कथाओं को कई तरह से प्रेरित किया है। पिछली दो शताब्दियों में भारतीय राष्ट्र स्थित के राजनीतिक लेखन के पीछे काम करने वाले धार्मिक और सामाजिक विभाजन, दरार और उभयभाविता नेआधुनिक भारतीय साहित्य को आकार दिया था। 

जनरल बैरियर के अनुसार नई दिल्ली के भारतीय राष्ट्रीय अभिलेखागार में अंग्रेजी सहित सहित नौ भारतीय भाषाओं में कुल 1,244 प्रतिबंधित प्रकाशन हैं जबकि ब्रिटिश संग्रहालय में 1,569 और इंडिया ऑफिस लाइब्रेरी और ब्रिटिश संग्रहालय के रिकॉर्ड इकट्ठे करके ब्रिटिश लाइब्रेरी में रख दिए गए हैं। इस प्रकार अब कुल 2,664 प्रतिबंधित प्रकाशन ब्रिटिश लाइब्रेरी में है और ऐसे 1,244 प्रकाशन भारतीय राष्ट्रीय अभिलेखागार में हैं। भारत सरकार के सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के प्रकाशन विभाग ने इन प्रतिबंधित प्रकाशनों में से चुनी हुई कविताओं का पहली बार 1987 में और फिर 1998 में प्रकाशन किया था। 2021 में भारत की स्वतंत्रता के 75 वीं वर्षगांठ यानी कि आजादी के अमृत महोत्सव के अवसर पर इन दोनों प्रकाशनों को नए आकर्षक रूप में पुनः प्रकाशित किया गया तथा हर कविता या गीत के साथ कलात्मक चित्र भी जोड़े गए हैं। इनमें से एक प्रकाशन का शीर्षक है- ‘आजादी की लड़ाई के जब्तशुदा तराने’ और दूसरे का ‘जब्तशुदा गीत: आजादी और एकता के तराने’ है। 

स्वतंत्रता पूर्व 18वीं शताब्दी में भरतपुर राज्य तथा पूर्वी राजस्थान के कई राजवाड़े हिंदी यानी कि बृजभाषा में कार्य कर रहे थे। इसके बाद 1826 में पंडित जुगलकिशोर शुक्ल ने कलकत्ता से हिंदी भाषा का पहला समाचार पत्र उदन्त मार्तण्ड का प्रकाशन किया। स्वराज के दौर में हिंदी के शब्दों की ताकत का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि जब अंग्रेजी राज ने अनेकों स्वतंत्रता सेनानियों को सलाखों के पीछे बंद कर दिया था और साथ में उनकी लेखन कला को भी कैद में कर दिया था। इन्हीं स्वतंत्रता सेनानियों में से एक ने जेल से अपने घर एक संदेश भेजा। उसमें यह लिखा था कि ‘इस राज के तार ढीले कर दो।’ जब अंग्रेज अधिकारियों को यह सूचना मिली तो उन्होंने इसका आशय इस बात से लगाया कि यह अंग्रेजी राज के तंत्र को ढीला करने की बात कह रहा है। इस संदेश के बारे में उस स्वतंत्रता सेनानी से पूछताछ हुई फिर उसने विनम्रता पूर्वक कहा कि जो वह समझ रहे हैं वह गलत है; वह सिर्फ अपने परिवार को यह संदेश भेजना चाहते थे कि वाद्ययंत्र (इसराज) के तार को ढीला कर दिया जाए, जिसे वह गिरफ्तारी के वक्त छोड़ आए थे। हिंदी की ताकत इतनी थी कि जुल्मी हुकूमत की जड़े हिल जाती थी। ऐसे-ऐसे शब्दों से अंग्रेजी शासन के अत्याचार के खिलाफ संघर्ष और आजादी का लक्ष्य हासिल करने के प्रयासों के अंतर्गत, शब्दों के साथ कल्पना शक्ति के तालमेल से ‘आनंदमठ’ जैसे उपन्यास का सृजन हुआ जिससे स्वतंत्र आंदोलन को तेज करने में मदद मिली। शब्दों ने हमें गीत, कविता और नारे भी दिए जो जनता के बीच काफी लोकप्रिय हुए और अत्याचारी शासन के खिलाफ विरोध को आवाज मिली।

आजादी के आंदोलन के समय हिंदी एक व्यवहारिक आवश्यकता थी क्योंकि चाहे वह गुजरात से आने वाले महात्मा गांधी, वल्लभ भाई पटेल हो या फिर तमिलनाडु से सी. राजगोपालाचारी या फिर देश के कोने-कोने से आने वाले विभिन्न स्वराज नेता जैसे पंजाब के लाला लाजपत राय महाराष्ट्र से गोपाल कृष्ण गोखले, बाल गंगाधर तिलक, जब इन नेताओं को अपने राज्यों से बाहर देश को संबोधित करने जाना पड़ता था तो उन्हें वहां हिंदी में ही अपनी बात रखनी पड़ती थी। जिस गति से आजादी की लड़ाई विकसित हुई उसी गति से हिंदी गद्य का भी विकास हुआ और भारत में लोगों के अंदर साहित्यिक चेतना पल्लवित हुई। इस नई चेतना में बांग्ला में सबसे पहले फिर उसके बाद हिंदी, मराठी, मलयालम, तमिल, ओड़िया, पंजाबी, गुजराती, उर्दू आदि साहित्य का सृजन हुआ। हिंदी साहित्य भी स्वराज की इस चेतना का वाहक बना।

भारत के स्वतंत्रता आंदोलन से हिंदी साहित्य का संबंध एक जटिल और बहुस्तरीय संबंध था। साहित्य को उस भाव का निर्माण भी करना था जो स्वराज का महत्व समझ सके, जो स्वराज के समस्त आयामों को स्वयं में धारण कर सके। हिंदी साहित्य को उस समाज का निर्माण भी करना था, जो स्वराज के अनुरूप अपना पुनर्गठन कर सके। इसका असर यह हुआ कि एक ऐसा समाज जिसमें बाल विवाह व विधवा जीवन का विचार न हो, जिसमें अशिक्षा व कुरीतियां न हो, जिसमें जात- पांत और रूढ़िवाद न हो, जिसमें मनुष्य सामाजिक गुलामी में न पिसता हो। देशानुराग, प्रकृति प्रेम, समाज सुधार, भारतीय इतिहास का गौरव कथन, प्राचीन साहित्य, मानव प्रेम, विश्व प्रेम, व्यक्ति स्वातंत्र्य का स्वर, समाजवाद आदि बिंदु हिंदी साहित्य में स्वतंत्रता आंदोलन की अभिव्यक्ति के रूप में प्रसिद्ध थी। इसमें सबसे प्रचलित समाज सुधार था, जिसके संदर्भ में हम भारतेंदु हरिश्चंद्र के नाटक ‘अंधेर नगरी चौपट राजा’ को याद कर सकते हैं; उसके बाद जयशंकर प्रसाद की ऐतिहासिक कहानियाँ व ऐतिहासिक नाटक; सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ की इतिहास आधारित अनेक कविताएं इसका उदाहरण है। भारतीय इतिहास का प्राचीन काल पूरे वैभव के साथ सामने था।

जहां नए-नए खोज हो रहे थे, 19वीं सदी और 20वीं सदी के पूर्वार्ध में अंग्रेजों ने नालंदा, अजंता, सिंधु घाटी जैसे स्थलों को भारतीयों की मदद से खोज लिया था और प्राचीन यात्रियों की यात्रा विवरण एवं साहित्यिक स्रोतों की मदद से उनकी ऐतिहासिकता स्थापित की।  इस खोज ने जहां एक और राष्ट्रवादी इतिहास को जन्म दिया वहीं दूसरी ओर साहित्य को कथा, उपन्यास, नाटक व काव्य के लिए ढेरों चरित्र व कथानक उपलब्ध करा दिया।  19वीं और 20वीं सदी के अनेक बांग्ला में लिखित ऐतिहासिक कथाओं का हिंदी में अनुवाद या रूपांतरण हुआ तथा उनकी प्रेरणा से मौलिक लेखन भी प्रारंभ हुआ। ऐतिहासिक कथानक को आधार बनाकर लिखी गई रचनाओं के माध्यम से भारतीय अतीत के स्वर्णिम होने तथा उसके खोए हुए गौरव को पुनः प्राप्त करने का भाव स्थापित करने की कोशिश की गई। मैथिलीशरण गुप्त का ‘जयद्रथ-वध’, ‘भारत भारती’; सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ की ‘राम की शक्ति पूजा’ आदि रचनाएँ विदेशी सत्ता के प्रतिकार की चेतना से संबंधित थी। माखनलाल चतुर्वेदी की ‘पुष्प की अभिलाषा’; जयशंकर प्रसाद की कहानी ‘पुरस्कार’; सुभद्राकुमारी चौहान की कविता ‘वीरों का कैसा हो वसंत’ आदि रचनाओं ने देश के प्रति अनुराग की सघन भावनाओं को मानव हृदय में भरा। इन सभी कविताओं में अंग्रेजी सत्ता का विरोध किए बिना अपने देश से प्रेम, उसके प्रति कर्तव्यभावना, उसके लिए उत्सर्ग हो जाने कामना, उसके नवनिर्माण के लिए प्रतिबद्धता आदि भावों को प्रभावशाली शब्दों में गूंथा गया था। चाहे वह प्रेमचंद हो या फिर सूरदास इन सभी ने देश प्रेम की भावना को वैकल्पिक समाजों की रचना, गावों में युवाओं के सेवाकार्य, रचनात्मक दृष्टिकोण आदि विविध रूपों में साहित्य में प्रकट किया।

  जब हिंदी साहित्य के विकास को बीसवीं सदी के आरंभिक दो दशकों में गति मिली तब 18वीं और 19वीं सदी में हो रहे परिवर्तनों का उस पर व्यापक प्रभाव पड़ा। इस समय तक छायावाद सबसे सशक्त अभिव्यक्ति बना। यह उस समाज का साहित्य था, जो अपने नवनिर्माण की आरंभिक लहरों से वह वाबस्ता था, जिसमें सामंती संबंधों की जकड़न से मुक्त होने की कामना ने जन्म ले लिया था। महादेवी वर्मा की कविता, जयशंकर प्रसाद और सुमित्रानंदन पंत के काव्यों ने इस स्वराज और समता की स्त्री आकांक्षा को प्रमाणिक स्वर दिया।

आजादी कोई अमूर्त स्वप्न नहीं था, न ही इसका संबंध भारत से अंग्रेज गोरों के चले जाने भर से था। इसका संबंध भारत के लोगों के जीवन में उन परिवर्तनों से था, जो उन्हें वर्तमान विश्व में एक बेहतर देश और समाज का नागरिक बना सके। महादेवी वर्मा, माखनलाल चतुर्वेदी, सुमित्रानंदन पंत, जयशंकर प्रसाद, सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’, बालकृष्ण शर्मा, नवीन, मुंशी प्रेमचंद्र या फिर इनके तत्काल बाद आई नई पीढ़ी के रचनाकार जैसे सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यानन ‘अज्ञेय’, यशपाल, हरिवंशराय बच्चन, नरेंद्र शर्मा, रामधारी सिंह दिनकर, आदि के साहित्य में जहाँ एक और राजनीतिक स्वतंत्रता का स्वर था तो दूसरी ओर इस स्वतंत्रता को परिभाषित और व्याख्या करने वाले जीवन के रिश्ते और गहरे चित्र थे। प्रेमचंद ने औपनिवेशिक शासन और ब्रिटिश सत्ता द्वारा पैदा की गई और संरक्षित जमीदारी प्रथा और महाजनी व्यवस्था में पिसते किसानों के जीवन का मर्म स्पर्शी और अत्यंत विस्तृत संचार अपनी रचनाओं में रचा।

विभाजन के दौर में उर्दू, हिंदी, पंजाबी, बंगाली, सिंधी उस भाषा आधारित पहचानों की प्रमुख घटक है जो राष्ट्रीयता की लघुता को बताती हैं और जिससे साहित्यिक प्रयास मेल खाता है। लूट, आतंक, दंगा, जीवन की हानि, शरणार्थी संकट, और नुकसान की विरासत ने भारतीय लेखकों की उस पूरी की पूरी पीढ़ी को हिला कर रख दिया जिन्होंने विभाजन की पीड़ा को अनुभव किया था। यह विभाजन की प्रक्रिया में सतत तबाही ‘एक जटिल मानवता त्रासदी’ की विशालता को दर्शाता है। विभाजन पर थोड़े बहुत कविताएं और नाटक भी लिखे गए हैं। हिंदी और उर्दू के लेखक इस क्षेत्र में अग्रणी थे। भारतीय विभाजन के सबसे बेहतरीन लेखक ‘सआदत हसन मंटो’ को माना जाता है जिन्होंने अपनी व्यक्तिगत जीवन में विभाजन की हिंसा, अनिश्चिता, आघात का व्यक्तिगत जीवन में अनुभव किया और विभाजन की घटना के लिए मानव वृत्ति के पारस्परिक संबंध को कल्पना में पिरोया। इस समय हिंदी लेखकों द्वारा लिखित पर्याप्त स्मृति लेख जैसे ‘कृष्ण चंदर की पेशावर एक्सप्रेस’; ‘यशपाल का झूठा सच’; ‘भीष्म साहनी का तमस’; ‘अमृता प्रीतम का पिंजर’; कमलेश्वर द्वारा लिखित कितने पाकिस्तान’ आदि ने उस दर्दनाक अनुभव, हिंसा, बलात्कार और महिलाओं का अपहरण, शरणार्थियों की पीड़ादायक स्मृति और जीवन के अज्ञात भाग्य के बारे में बताया है।

धीरे-धीरे भारतीय बौद्धिक जगत और आम जनता को 1918 से 1942 के अंग्रेजी राज के खिलाफ सत्याग्रह, अहिंसा, स्वराज, चरखा, समाजवाद, उग्र राष्ट्रवाद आदि और अंत में 1942 में करो या मरो जैसे आंदोलनकारी शब्द मिलते हैं। इस बीच साहित्य से लेकर राष्ट्रीय राजनीति के क्षेत्र में गांधी और अंबेडकर सहित भगत सिंह, जिन्ना, पेरियार, सुभाषचंद्र बोस आदि जिस भारत की परिकल्पना लेकर स्वाधीनता आंदोलन में आते हैं, वह एक नया राष्ट्रवादी भारत है और यह राष्ट्रवादी भारत ब्रिटिश साम्राज्यवाद सहित, पारंपरिक भारतीय समाज की जड़ स्थापनाओं की भी चूलें हिलाना शुरू कर देता है। यह सभी लेखक बौद्धिक स्तर पर पूरे देश में ब्रिटिश राज के खिलाफ प्रतिरोध की जिस राष्ट्रवादी सामूहिक चेतना का निर्माण करते हैं उसकी उपस्थिति बाद के भारतीय साहित्य में गहराई के साथ दिखलाई पड़ती है।

इस सब का प्रभाव हिंदी साहित्य पर पड़ा। बल्कि हिंदी साहित्य इस मंथन से ही अब रूपांतरित होना शुरू हुआ। 1947 में आजादी मिलने के पूर्व के दस वर्ष इस नई धारा के साहित्य के विकास के थे। राष्ट्रीय आंदोलन की चेतना में बीसवीं सदी के आरंभिक पचास वर्षों में जो जो परिवर्तन हुए, उन परिवर्तनों का स्रोत समाज और इतिहास की गति थी, इस गति से पैदा हुई सामूहिक आकांक्षा और सामूहिक सपने थे। हिंदी साहित्य इसी गति, आकांक्षा और स्वप्न का शब्दरूप था। 

वास्तव में 1857 से 1947 के बीच भारतीय राष्ट्रवाद का जो रूप दिखलाई पड़ता है वह आम जनता के उस राष्ट्रवाद की तरफ संकेत करता है जिसके केंद्र में राष्ट्रमुक्ति के अलावा और कुछ नहीं है। हिंदी साहित्य अथवा लोक स्मृतियों में दर्ज रचनाएं भी राजनीतिक मुक्ति की बातें सबसे अधिक करती हैं तथा उसके समानांतर सामाजिक मुक्त के प्रश्न को तल्खी के साथ उठाती हैं जिसमें स्त्री तथा दलित मुक्ति का सवाल एक बड़े सवाल के रूप में आता है। 

आजादी के 75 साल बाद साहित्य का पुनर्पाठ अनिवार्य रूप से भारतीय उपमहाद्वीप के नए जीवन का प्रतिपादन हो सकता है। अंत में यह गीतांजलि श्री के हिंदी उपन्यास ‘रेत समाधि’ (टॉम्ब ऑफ सैंड, 2018, भारतीय विभाजन) का उल्लेख करने योग्य है, जिसके अंग्रेजी अनुवाद को हाल ही में अंतरराष्ट्रीय बुकर पुरस्कार प्राप्त हुआ है। 

सूर्य प्रकाश अग्रहरि

द फ्रीडम स्टॉफ
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